झाँसी का नाम पहले बलवंत नगर था या शंकर गढ़ या मंजमहल ??????

चलिए आज झांसी के किस्से को शुरू से शुरू करते हैं।









करीब १५५३ AD का समय रहा होगा जब कुछ अहीर ग्वाले पश्चिम की तरफ से उत्तर की तरफ आते हुए बंगरा की पहाड़ी पर रुक गए। पशुओं को चराने के लिए मैदान काफी था किन्तु मैदान इतना बड़ा था कि उन अहीरो के बस में संभालना नहीं था। 





सोच विचार कर उन्होंने बंगरा की पहाड़ी पर कुछ झोपडी बना ली। यह इलाका उन दिनों लहरगिर्द गांव के अंतर्गत आता था और महाराजा ओरछा के शासन अधीन था। 

कुछ साल बाद १६१३ में महाराजा ओरछा बीर सिंह देव ने उसी पहाड़ी पर एक छोटे से किले का निर्माण किया जिसका नाम मंज महल दिया गया था। 





झांसी का नाम झाईं सी से झांसी पड़ा इसका भी कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता है क्योंकि जिन राजा जैतपुर के नाम से कहानी कही जाती है वैसा कोई राजा बीर सिंह जू देव के राज्य में नहीं था। 

बीर सिंह महाराज के पुत्र की मृत्यु पश्चात यह किला मुगलों के हाथ चला गया। 

१७२९ से लेकर १७४२ तक यह किला मुगलों के अधीन रहा जिनका आखिरी गवर्नर मुकीम खान था। उसके ही एक मुलाजिम शेख बुलाकी की गद्दारी के कारण यह किला मराठाओं के हाथ लग गया। 

हुआ यूं था कि बुलाकी को झांसी कामदार की पदवी से बेदखल कर दिया गया था जिस कारण उसने झांसी छोड़कर मालवा के मल्हार कृष्णा राव की शरण ले ली थी जो कि नारू शंकर का सिपहलासर था।नारू शंकर उन दिनों उत्तर को फतेह करने के लिए बड़ा आ रहा था। 

बूलाकी ने बिजोली तक उसकी सेना का साथ दिया और वहां से अकेला झांसी की ओर बढ़ चला। मुकीम खान के पैरों पर गिर कर माफी मांगी बुलाकि ने और अपनी पदवी वापिस पा ली। एक रात बूलाकी ने किले के दरवाज़े यह कहकर खुले छुड़वा दिए कि उसके कुछ मित्र शहर से आने वाले है। 

बूलाकि ने सच ही कहा था, मराठा उसके मित्र ही थे, जो उस रात बिना एक खून की बूंद बहाए किले में दाखिल हुए और मुकीम को बंदी बना लिया। उसी रात नारू शंकर ने मुकीम से उस कागज़ पर दस्तखत करवा लिए जिस पर लिखा था कि मुकीम, मंज महल को नारू शंकर को बेच रहा है। 

इस समय तक किले के बाहर कुछ ही झोपडी आदि थे किन्तु नारू शंकर ने ओरछा से लाकर लोगों को यहां बसाना शुरू कर दिया। किले को विशाल आकार देते हुए एक अभेद्य किले शंकर गढ़ में बदल दिया। 

१७५७ में नारू शंकर को मराठाओं ने वापिस बुला लिया और शंकर गढ़ की गद्दी मिली मधाजी गोबिंद आंतिया को  जिनके नाम पर आज आपको आंतीया ताल देखने को मिलता है। 

१७६१ और १७६५ के बीच के समय के बारे में किताबो में ज़्यादा कुछ नहीं मिलता है। 

कहा जाता है कि करीब छह महीने के किए सुजाद्दोला का कब्जा भी इस किले पर रहा था जिनका साथ शुरू में महाराज अनुप्गिरी दे रहे थे 

किन्ही कारणों से अनूप गिरी महाराज ने सुजोद्दुला का साथ छोड़ दिया और  बाद में उसको हरा कर किले को अपने कब्जे में कर लिया था। 

तारीखों के हिसाब से समझे तो अनूपगिरी महाराज के किले पर कब्जे करने के पश्चात ही उसका नाम  बलवंत गिरी महाराज के नाम पर बदला गया होगा जैसा कि गिरि संप्रदाय के सदस्यों का कहना है किन्तु यह तो १७६१ और १७६५ के बीच का समय है जबकि राजा बीर सिंह जी का कार्यकाल और झांसी वाली कहानी १६१३ के बीच की है। 

बलवंत गिरी महाराज का उल्लेख और जीवन के काल के बारे में कोई जानकारी नहीं होने कर कारण उनके नाम से बलवंत नगर होने का सम्बन्ध स्थापित करने में मै अभी असक्षम हूं। 

मुझे एक बात पर और अचरज होता है कि जब महाराज बीर सिंह के पास ओरछा में पहले से एक किला था तो सिर्फ छह मील की दूरी पर एक किला बनवाने की क्या आवश्यकता थी ? 


जहां तक मुझे लगता है कि महाराजा ओरछा ने किला ना बनवा कर एक गढ़ी बनवाई थी जिसे किले का रूप बाद में मराठा सरदार नारू शंकर ने दिया। इस बात का उल्लेख किताबों में मिलता है कि महाराजा ओरछा के शासन के अंतर्गत ५२ किले/ गढ़ी आते थे और हो ना हो मंजमहल वही एक गढ़ी थी।  



( यह सारी जानकारी उत्तर प्रदेश के बारे में प्रकाशित गजट से ली गयी है ) 

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