वीरांगना झलकारी बाई - Jhalkari Bai


वीरांगना झलकारी बाई




ग्वालियर रोड से भोजला गाँव नजदीक था। खेतों में हरी-भरी चने की फसल लहरा रही थी। चारों तरफ रंग-बिरंगे फूल खिले थे। प्रकृति अपने अनोखे श्रृंगार में थी। उन्हीं की अनुपम छटा निहारते हुए राहगीर सड़क से उतरकर छोटे रास्ते पर आ गया था। दिन का समय था। चारों तरफ धूप फैली थी। गाँव की विराट संस्कृति का अनूठा सौन्दर्य अपनी अस्मिता और पहचान के साथ सर्वत्र दिखाई देता था। अलग-बगल से गुजरते हुए लोग। राहगीर कुछ के लिए अपना था और अन्य के लिए पराया, पर अजनबी नहीं था। जमीन की गन्ध जितनी बाहर थी उतनी ही उसके भीतर भी। खेत पार कर अचानक राहगीर की निगाहें छः सात वर्षीय एक लड़की की ओर उठ गई। उसका रंग थोड़ा साँवला था। आँखों में ढेर सारी चमक, बिखरे बाल। राहगीर ने पलभर सोचा। उसे ध्यान आया। पहले इस लडकी को कहीं देखा है। वह व्यक्ति गाँव में दो-तीन बरस पहले भी आ चुका था। उसी व्यक्ति ने मन में सोचा। कहीं यह सदोवा की मोड़ी तो नहीं है। राहगीर पास आया, तो पूछ बैठा वह, ‘‘बिन्नू का कर रई ?’’ मिट्टी के ढेर पर बैठी लड़की के कानो में अनजाने व्यक्ति की आवाज पड़ी तो चौंक-सी उठी वह। उसने देखा अधेड़ उम्र का आदमी उसके पास आकर ठहर गया था। लड़की के होंठों पर हल्की मूँछें थीं। सिर पर सफेदी बिखरी हुई थी। शरीर पर मटमैला कुर्ता और धोती, पाँव में साधारण जूतियाँ, जो धूल-मिट्टी से अटी हुई थीं। लगता था जैसे वह काफ़ी दूर से पैदल चलकर आया हो। बिना किसी हिचकिचाहट के तपाक से उसने कहा था, ‘‘किलौ बनाई रई हूँ।’’ पूछने वाले के मुँह से आश्चर्य से निकला, ‘‘क्या ?’’ झलकारी फिर बोली, ‘‘किलौ, तोय सुनाई नई दैरयौ।’’ उसके स्वर में थोड़ी तुर्शी थी। सुनने वाले को बुरा लगा। थोड़ा नाराजगी के स्वर में बोला, ‘‘बिन्नू तैं तो भौतई खुन्नस खा रई। य्य तो बतला, कौन की मोड़ी है तू ?’’ झलकारी इस बार धीरे से बोली, ‘‘सदोवा मूलचन्द्र की।’’ सुनकर आगन्तुक जाने के लिए पीछे मुड़ा ही था कि वह पूछ बैठी, ‘‘हमाय बारे में पूछ लयो अपने बारे में नई बताओ कछु। इतिहास जब भी लिखा गया है, राजाओं को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। राजा उस देश का प्रथम पुरुष होता है। इसलिए राजा का स्थान इतिहास में शीर्ष पर होता है। इतिहासकारों, कवियों, लेखकों के द्वारा उनका वर्णन नायक के रूप में किया जाता है। किन्तु द्वितीय लाइन के नायकों का वर्णन कम ही मिलता है। ऐसा नहीं है कि इतिहास ने बिल्कुल ही उन्हें नकारा हो। भगवान राम का जहाँ भी उल्लेख आता है, हनुमान जी को भी उतनी ही श्रद्धा और आदर-भाव से याद किया जाता है।



इसी प्रकार झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की नियमित सेना में महिलाओं की एक शाखा थी। जिसकी सेनापति वीरांगना झलकारी बाई थीं। बुंदेलखण्ड की प्रसिद्ध कवयित्री श्रीमती सुभद्राकुमारी चौहान ने केवल महारानी लक्ष्मीबाई का ही गुणगान किया है। उनकी कविता में झलकारी बाई का कहीं नाम नहीं आया है। किन्तु राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने झलकारी की बहादुरी को निम्न प्रकार पंक्तिबद्ध किया है - जा कर रण में ललकारी थी, वह तो झाँसी की झलकारी थी । गोरों से लडना सिखा गई, है इतिहास में झलक रही, वह भारत की ही नारी थी ।। झलकारी बाई का जन्म 22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास के भोजला गाँव में एक निर्धन कोली परिवार में हुआ था। झलकारी बाई के पिता का नाम सदोवर सिंह और माता का नाम जमुना देवी था। जब झलकारी बाई बहुत छोटी थीं तब उनकी माँ की मृत्यु के हो गयी थी और उसके पिता ने उन्हें एक लड़के की तरह पाला था। उन्हें घुड़सवारी और हथियारों का प्रयोग करने में प्रशिक्षित किया गया था। उन दिनों की सामाजिक परिस्थितियों के कारण उन्हें कोई औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हो पाई, लेकिन उन्होंने खुद को एक अच्छे योद्धा के रूप में विकसित किया था। झलकारी बचपन से ही बहुत साहसी और दृढ़ प्रतिज्ञ बालिका थी। झलकारी घर के काम के अलावा पशुओं के रखरखाव और जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम भी करती थी। एक बार जंगल में उसकी मुठभेड़ एक तेंदुए के साथ हो गयी थी, और झलकारी ने अपनी कुल्हाड़ी से उस जानवर को मार डाला था। एक अन्य अवसर पर जब डकैतों के एक गिरोह ने गाँव के एक व्यवसायी पर हमला किया तब झलकारी ने अपनी बहादुरी से उन्हें पीछे हटने को मजबूर कर दिया था। उसकी इस बहादुरी से खुश होकर गाँव वालों ने उसका विवाह रानी लक्ष्मीबाई की सेना के एक सैनिक पूरन कोरी से करवा दिया, पूरन भी बहुत बहादुर था और पूरी सेना उसकी बहादुरी का लोहा मानती थी।

एक बार गौरी पूजा के अवसर पर झलकारी गाँव की अन्य महिलाओं के साथ महारानी को सम्मान देने झाँसी के किले मे गयीं, वहाँ रानी लक्ष्मीबाई उन्हें देख कर अवाक रह गयी क्योंकि झलकारी बिल्कुल रानी लक्ष्मीबाई की तरह दिखतीं थीं। अन्य औरतों से झलकारी की बहादुरी के किस्से सुनकर रानी लक्ष्मीबाई बहुत प्रभावित हुईं। रानी ने झलकारी को दुर्गा सेना में शामिल करने का आदेश दिया। झलकारी ने यहाँ अन्य महिलाओं के साथ बंदूक चलाना, तोप चलाना और तलवारबाजी की प्रशिक्षण लिया। यह वह समय था जब झांसी की सेना को किसी भी ब्रिटिश दुस्साहस का सामना करने के लिए मजबूत बनाया जा रहा था लार्ड डलहौजी की राज्य हड़पने की नीति के चलते, ब्रिटिशों ने निःसंतान लक्ष्मीबाई को उनका उत्तराधिकारी गोद लेने की अनुमति नहीं दी, क्योंकि वे ऐसा करके राज्य को अपने नियंत्रण में लाना चाहते थे। हालांकि, ब्रिटिश की इस कार्रवाई के विरोध में रानी के सारी सेना, उसके सेनानायक और झांसी के लोग रानी के साथ लामबंद हो गये और उन्होंने आत्मसमर्पण करने के बजाय ब्रिटिशों के ख़िलाफ़ हथियार उठाने का संकल्प लिया। अप्रैल 1858 के दौरान, लक्ष्मीबाई ने झांसी के किले के भीतर से, अपनी सेना का नेतृत्व किया और ब्रिटिश और उनके स्थानीय सहयोगियों द्वारा किये कई हमलों को नाकाम कर दिया।

रानी के सेनानायकों में से एक दूल्हेराव ने उसे धोखा दिया और किले का एक संरक्षित द्वार ब्रिटिश सेना के लिए खोल दिया। जब किले का पतन निश्चित हो गया तो रानी के सेनापतियों और झलकारी बाई ने उन्हें कुछ सैनिकों के साथ किला छोड़कर भागने की सलाह दी। रानी अपने घोड़े पर बैठ अपने कुछ विश्वस्त सैनिकों के साथ झांसी से दूर निकल गईं। झलकारी बाई का पति पूरन किले की रक्षा करते हुए शहीद हो गया लेकिन झलकारी ने बजाय अपने पति की मृत्यु का शोक मनाने के, ब्रिटिशों को धोखा देने की एक योजना बनाई। झलकारी ने लक्ष्मीबाई की तरह कपड़े पहने और झांसी की सेना की कमान अपने हाथ मे ले ली। जिसके बाद वह किले के बाहर निकल ब्रिटिश जनरल ह्यूग रोज़ के शिविर मे उससे मिलने पहँची।

ब्रिटिश शिविर में पहँचने पर उसने चिल्लाकर कहा कि वो जनरल ह्यूग रोज़ से मिलना चाहती है। रोज़ और उसके सैनिक प्रसन्न थे कि न सिर्फ उन्होंने झांसी पर कब्जा कर लिया है बल्कि जीवित रानी भी उनके कब्ज़े में है। जनरल ह्यूग रोज़ जो उसे रानी ही समझ रहा था, ने झलकारी बाई से पूछा कि उसके साथ क्या किया जाना चाहिए? तो उसने दृढ़ता के साथ कहा, मुझे फाँसी दो। जनरल ह्यूग रोज़ झलकारी का साहस और उसकी नेतृत्व क्षमता से बहुत प्रभावित हुआ, और झलकारी बाई को रिहा कर दिया गया। इसके विपरीत कुछ इतिहासकार मानते हैं कि झलकारी इस युद्ध के दौरान वीरगति को प्राप्त हुई। एक बुंदेलखंड किंवदंती है कि झलकारी के इस उत्तर से जनरल ह्यूग रोज़ दंग रह गया और उसने कहा कि "यदि भारत की 1% महिलायें भी उसके जैसी हो जायें तो ब्रिटिशों को जल्दी ही भारत छोड़ना होगा"। यदि लक्ष्मीबाई के सेनानायकों में से एक ने उनके साथ विश्वासघात न किया होता तो झांसी का किला ब्रिटिश सेना के लिए प्राय: अभेद्य था। झलकारी बाई की गाथा आज भी बुंदेलखंड की लोकगाथाओं और लोकगीतों में सुनी जा सकती है। भारत सरकार ने २२ जुलाई २००१ में झलकारी बाई के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया है,उनकी प्रतिमा और एक स्मारक अजमेर, राजस्थान में निर्माणाधीन है, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उनकी एक प्रतिमा आगरा में स्थापित की गयी है, साथ ही उनके नाम से लखनऊ मे एक धर्मार्थ चिकित्सालय भी शुरु किया गया है।




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