आल्हा-ऊदल की कहानी - The Story of Two Brave-Hearts Aalha-Udal

बड़े लडइया महोबेवाला जिनके बल को वार न पार 






"जौन घड़ी यहु लड़िका जन्मो दूसरो नाय रचो करतार सेतु बन्ध और रामेश्वर लै करिहै जग जाहिर तलवार किला जीती ले यह माडू का बाप का बदला लिहै चुकाय जा कोल्हू में बाबुल पेरे जम्बे को ठाडो दिहे पिराय किला किला पर परमाले की रानी दुहाई दिहे फिराय सारे गढ़ो पर विजय ये करिके जीत का झंडा दिहे गडाय तीन बार गढ दिल्ली दाबे मारे मान पिथौरा क्यार नामकरण जाको ऊदल है भीमसेन क्यार अवतार" जिस बालक के पैदा होने पर जब ज्योतिषियों ने ये कहा हो तो उसे गौरव पुरुष होना ही था l

पं० ललिता प्रसाद मिश्र ने अपने ग्रन्थ आल्हखण्ड की भूमिका में आल्हा को युधिष्ठिर और ऊदल को भीम का साक्षात अवतार बताते हुए लिखा है - "यह दोनों वीर अवतारी होने के कारण अतुल पराक्रमी थे। ये प्राय: १२वीं विक्रमीय शताब्दी में पैदा हुए और १३वीं शताब्दी के पुर्वार्द्ध तक अमानुषी पराक्रम दिखाते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये।

ऐसा प्रचलित है की ऊदल की पृथ्वीराज चौहान द्वारा हत्या के पश्चात आल्हा ने संन्यास ले लिया और जो आज तक अमर है और गुरु गोरखनाथ के आदेश से आल्हा ने पृथ्वीराज को जीवनदान दे दिया था ,पृथ्वीराज चौहान के परम मित्र संजम भी महोबा की इसी लड़ाई में आल्हा उदल के सेनापति बलभद्र तिवारी जो कान्यकुब्ज और कश्यप गोत्र के थे उनके द्वारा मारा गया था l

वह शताब्दी वीरों की सदी कही जा सकती है और उस समय की अलौकिक वीरगाथाओं को तब से गाते हम लोग चले आते हैं। आज भी कायर तक उन्हें (आल्हा) सुनकर जोश में भर अनेकों साहस के काम कर डालते हैं। यूरोपीय महायुद्ध में सैनिकों को रणमत्त करने के लिये ब्रिटिश गवर्नमेण्ट को भी इस (आल्हखण्ड) का सहारा लेना पड़ा था। आल्ह-खण्ड लोक कवि जगनिक द्वारा लिखित एक वीर रस प्रधान काव्य हैं जिसमें आल्हा और ऊदल की ५२ लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं। जगनिक कालिंजर के चन्देल राजा परमार्दिदेव (परमाल ११६५-१२०३ई.) के आश्रयी कवि (भाट) थे। इन्होने परमाल के सामंत और सहायक महोबा के आल्हा-ऊदल को नायक मानकर आल्हखण्ड नामक ग्रंथ की रचना की जिसे लोक में 'आल्हा' नाम से प्रसिध्दि मिली। इसे जनता ने इतना अपनाया और उत्तर भारत में इसका इतना प्रचार हुआ कि धीरे-धीरे मूल काव्य संभवत: लुप्त हो गया।

विभिन्न बोलियों में इसके भिन्न-भिन्न स्वरूप मिलते हैं। अनुमान है कि मूलग्रंथ बहुत बड़ा रहा होगा। १८६५ ई. में फर्रूखाबाद के कलक्टर सर चार्ल्स इलियट ने 'आल्ह खण्ड' नाम से इसका संग्रह कराया जिसमें कन्नौजी भाषा की बहुलता है। आल्ह खण्ड जन समूह की निधि है। रचना काल से लेकर आज तक इसने भारतीयों के हृदय में साहस और त्याग का मंत्र फूँका है. राजपूतों के नैतिक नियमों में केवल वीरता ही नहीं थी बल्कि अपने स्वामी और अपने राजा के लिए जान देना भी उसका एक अंग था। आल्हा और ऊदल की जिन्दगी इसकी सबसे अच्छी मिसाल है। सच्चा राजपूत क्या होता था और उसे क्या होना चाहिये इसे लिस खूबसूरती से इन दोनों भाइयों ने दिखा दिया है, उसकी मिसाल हिन्दोस्तान के किसी दूसरे हिस्से में मुश्किल से मिल सकेगी।




कहते है कि आल्हा को युद्ध से घृणा थी और न्यायपूर्ण ढंग से रहना विशेष पसंद था । इनके पिता जच्छराज (जासर) और माता देवला थी। ऊदल इनका छोटा भाई था। जच्छराज और बच्छराज दो सगे भाई थे जो राजा परमा के यहाॅ रहते थे। परमाल की पत्नी मल्हना थी और उसकी की बहने देवला और तिलका से महाराज ने अच्छराज और बच्छराज की शादी करा दी थी। मइहर की देवी से आल्हा को अमरता का वरदानल मिला था। युद्ध में मारे गये वीरों को जिला देने की इनमें विशेशता थी। लाार हो कर कभी-कभी इन्हें युद्ध में भी जाना पड़ता था। जिस हाथी पर ये सवारी करते थे उसका नाम पष्यावत था। इन का विवाह नैनागढ़ की अपूर्व सुन्दरी राज कन्या सोना से हुआ था। इसी सोना के संसर्ग से ईन्दल पैदा हुआ जो बड़ा पराक्रमी निकला। शायद आल्हा को यह नही मालूम था कि वह अमर है। इसी से अपने छोटे एवं प्रतापी भाई ऊदल के मारे जाने पर आह भर के कहा है-
पहिले जानिति हम अम्मर हई, काहे जुझत लहुरवा भाइ । (कहीं मैं पहले ही जानता कि मैं अमर हूँ तो मेरा छोटा भाई क्यों जूझता)





ऊदल का जन्म 12 वी शादी में जेठ दशमी दशहरा के दिन हुआ था इनके पिता देशराज राजा जम्बे माडोगढ़ वर्तमान मांडू जो नर्मदा नदी के किनारे स्थित है द्वारा युद्ध में मारे गये थे जिनकी मा का नाम देवल था जी अहीर जाति के थी बड़ी बहादुर और ज्ञानी थी जिनकीमृत्यु पर आल्हा ने विलाप करते हुए कहा कि"मैय्या देवे सी ना मिलिहै भैया न मिले वीर मलखान पीठ परन तो उदय सिंह है जिन जग जीत लई किरपान" राजा परिमाल की रानी मल्हना ने ऊदल का पालन पोषण पुत्र की तरह किया इनका नाम उदय सिंह रखा ऊदल बचपन से ही युद्ध के प्रति उन्मत्त रहता था इसलिए आल्हखण्ड में लिखा है "कलहा पूत देवल क्यार " अस्तु जब उदल का जन्म हुआ उस समय का वर्त्तान्त अलह खण्ड में दिया है.




ऊदल , आल्हा का छोटा भाई, युद्ध का प्रेमी और बहुत ही प्रतापी था। अधिकांष युद्धों का जन्मदाता यही बतलाया जाता है। इसके घेड़े का नमा बेंदुल था। बेंदुल देवराज इन्द्र के रथ का प्रधान घोड़ा था। इसक अतिरिक्त चार घोड़े और इन्द्र के रथ में जोते जाते थे जिन्हे ऊदल धरा पर उतार लाया था। इसकी भी एक रोचक कहानी है। - ‘‘कहा जाता है कि देवराज हन्द्र मल्हना से प्यार करता था। इन्द्रसान से वह अपने रथ द्वारा नित्य रात धरती पर आता था। ऊदल ने एक रात उसे देख लिया और जब वह रथ लेकर उड़ने को हुआ , ऊदल रथ का धुरा पकड़ कर उड़ गया। वहां पहुंच कर इन्द्र जब रथ से उतरा, ऊदल सामने खड़ा हो गया। अपनी मर्यादा बचाने के लिए इन्द्र ने ऊदल के ही कथ्नानुसार अपने पांचों घोडे़ जो उसके रथ में जुते थे दे दिये। पृथ्वी पर उतर कर जब घोड़ों सहित गंगा नदी पार करने लगा तो पैर में चोट लग जाने के कारण एक घोड़ा बह गया। उसका नाम संडला था और वह नैनागढ़ जिसे चुनार कहते है किले से जा लगा। वहां के राजा इन्दमणि ने उसे रख लिया। बाद में वह पुनः महोबे को लाया गया और आल्हा का बेटा ईन्दल उस पर सवारी करने लगा। ऊदल वीरता के साथ-साथ देखने में भी बड़ा सुन्दर था। नरवरगढ़ की राज कन्या फुलवा कुछ पुराने संबंध के कारण सेनवा की शादी में नैनागढ़ गयी थी। द्वार पूजा के समय उसने ऊदल को दख तो रीझ गयी। अन्त में कई बार युद्ध करने पर ऊदल को उसे अपना बनाना पड़ा । ऊदल में धैर्य कम था। वह किसी भी कार्य को पूर्ण करने के हतु शीघ्र ही शपथ ले लेता था। फिर भी अन्य वीरों की सतर्कता से उसकी कोई भी प्रतिज्ञा विफल नही हुई। युद्ध में ही इसका जीवन समाप्त हो गया। इसका मुख्य अस्त्र तलवार था।


आल्हा और ऊदल के मार्के और उसको कारनामे एक चन्देली कवि ने शायद उन्हीं के जमाने में गाये, और उसको इस सूबे में जो लोकप्रियता प्राप्त है वह शायद रामायण को भी न हो। यह कविता आल्हा ही के नाम से प्रसिद्ध है और आठ-नौ शताब्दियॉँ गुजर जाने के बावजूद उसकी दिलचस्पी और सर्वप्रियता में अन्तर नहीं आया। आल्हा गाने का इस प्रदेश मे बड़ा रिवाज है। देहात में लोग हजारों की संख्या में आल्हा सुनने के लिए जमा होते हैं। शहरों में भी कभी-कभी यह मण्डलियॉँ दिखाई दे जाती हैं।

बड़े लोगों की अपेक्षा सर्वसाधारण में यह किस्सा अधिक लोकप्रिय है। किसी मजलिस में जाइए हजारों आदमी जमीन के फर्श पर बैठे हुए हैं, सारी महाफिल जैसे बेसुध हो रही है और आल्हा गाने वाला किसी मोढ़े पर बैठा हुआ आपनी अलाप सुना रहा है। उसकी आवज आवश्यकतानुसार कभी ऊँची हो जाती है और कभी मद्धिम, मगर जब वह किसी लड़ाई और उसकी तैयारियों का जिक्र करने लगता है तो शब्दों का प्रवाह, उसके हाथों और भावों के इशारे, ढोल की मर्दाना लय उन पर वीरतापूर्ण शब्दों का चुस्ती से बैठना, जो जड़ाई की कविताओं ही की अपनी एक विशेषता है, यह सब चीजें मिलकर सुनने वालों के दिलों में मर्दाना जोश की एक उमंग सी पैदा कर देती हैं।

बयान करने का तर्ज ऐसा सादा और दिलचस्प और जबान ऐसी आमफहम है कि उसके समझने में जरा भी दिक्कत नहीं होती। वर्णन और भावों की सादगी, कला के सौंदर्य का प्राण है।


इसी किस्से की एक बानगी देखिये --

राजा परमालदेव चन्देल खानदान का आखिरी राजा था। तेरहवीं शाताब्दी के आरम्भ में वह खानदान समाप्त हो गया। महोबा जो एक मामूली कस्बा है उस जमाने में चन्देलों की राजधानी था। महोबा की सल्तनत दिल्ली और कन्नौज से आंखें मिलाती थी।

आल्हा और ऊदल इसी राजा परमालदेव के दरबार के सम्मनित सदस्य थे। यह दोनों भाई अभी बच्चे ही थे कि उनका बाप जसराज एक लड़ाई में मारा गया। राजा को अनाथों पर तरस आया, उन्हें राजमहल में ले आये और मोहब्बत के साथ अपनी रानी मलिनहा के सुपुर्द कर दिया। रानी ने उन दोनों भाइयों की परवरिश और लालन-पालन अपने लड़के की तरह किया। जवान होकर यही दोनों भाई बहादुरी में सारी दुनिया में मशहूर हुए। इन्हीं दिलावरों के कारनामों ने महोबे का नाम रोशन कर दिया है।


आल्हा और ऊदल राजा परमालदेव पर जान कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे। रानी मलिनहा ने उन्हें पाला, उनकी शादियां कीं, उन्हें गोद में खिलाया। नमक के हक के साथ-साथ इन एहसानों और सम्बन्धों ने दोनों भाइयों को चन्देल राजा का जॉँनिसार रखवाला और राजा परमालदेव का वफादार सेवक बना दिया था। उनकी वीरता के कारण आस-पास के सैकडों घमंडी राजा चन्देलों के अधीन हो गये। महोबा राज्य की सीमाएँ नदी की बाढ़ की तरह फैलने लगीं और चन्देलों की शक्ति दूज के चॉँद से बढ़कर पूरनमासी का चॉँद हो गई।


यह दोनों वीर कभी चैन से न बैठते थे। रणक्षेत्र में अपने हाथ का जौहर दिखाने की उन्हें धुन थी। सुख-सेज पर उन्हें नींद न आती थी। और वह जमाना भी ऐसा ही बेचैनियों से भरा हुआ था। उस जमाने में चैन से बैठना दुनिया के परदे से मिट जाना था। बात-बात पर तलवांरें चलतीं और खून की नदियॉँ बहती थीं। यहॉँ तक कि शादियाँ भी खूनी लड़ाइयों जैसी हो गई थीं। लड़की पैदा हुई और शामत आ गई। हजारों सिपाहियों, सरदारों और सम्बन्धियो- की जानें दहेज में देनी पड़ती थीं। आल्हा और ऊदल उस पुरशोर जमाने की यच्ची तस्वीरें हैं और गोकि ऐसी हालतों ओर जमाने के साथ जो नैतिक दुर्बलताएँ- और विषमताएँ पाई जाती हैं, उनके असर से वह भी बचे हुए नहीं हैं, मगर उनकी दुर्बलताएँ- उनका कसूर नहीं बल्कि उनके जमाने का कसूर हैं।


आल्हा का मामा माहिल एक काले दिल का, मन में द्वेष पालने वाला आदमी था। इन दोनों भाइयों का प्रताप और ऐश्वर्य उसके हृदय में कॉँटे की तरह खटका करता था। उसकी जिन्दगी की सबसे बड़ी आरजू यह थी कि उनके बड़प्पन को किसी तरह खाक में मिला दे। इसी नेक काम के लिए उसने अपनी जिन्दगी न्यौछावर कर दी थी। सैंकड़ों वार किये, सैंकड़ों बार आग लगायी, यहॉँ तक कि आखिरकार उसकी नशा पैदा करनेवाली मंत्रणाओं ने राजा परमाल को मतवाला कर दिया। लोहा भी पानी से कट जाता है। एक रोज राजा परमाल दरबार में अकेले बैठे हुए थे कि माहिल आया। राजा ने उसे उदास देखकर पूछा, भइया, तुम्हारा चेहरा कुछ उतरा हुआ है। माहिल की आँखों में आँसू आ गये। मक्कार आदमी को अपनी भावनाओं पर जो अधिकार होता है वह किसी बड़े योगी के लिए भी कठिन है। उसका दिल रोता है मगर होंठ हँसते हैं, दिल खुशियों के मजे लेता है मगर आँखें रोती हैं, दिल डाह की आग से जलता है मगर जबान से शहद और शक्कर की नदियॉँ बहती हैं। माहिल बोला-महारा- , आपकी छाया में रहकर मुझे दुनिया में अब किसी चीज की इच्छा बाकी नहीं मगर जिन लोगों को आपने धूल से उठाकर आसमान पर पहुँचा दिया और जो आपकी कृपा से आज बड़े प्रताप और ऐश्वर्यवाल- बन गये, उनकी कृतघ्रता और उपद्रव खड़े करना मेरे लिए बड़े दु:ख का कारण हो रही है। परमाल ने आश्चर्य से पूछा- क्या मेरा नमक खानेवालों में ऐसे भी लोग हैं? माहिल- महाराज, मैं कुछ नहीं कह सकता। आपका हृदय कृपा का सागर है मगर उसमें एक खूंखार घड़ियाल आ घुसा है। -वह कौन है? -मैं।

परमाल ने आश्चर्य से पूछा-तुम! माहिल- हॉँ महाराज, वह अभागा व्यक्ति मैं ही हूँ। मैं आज खुद अपनी फरियाद लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ। अपने सम्बन्धियो- के प्रति मेरा जो कर्तव्य है वह उस भक्ति की तुलना में कुछ भी नहीं जो मुझे आपके प्रति है। आल्हा मेरे जिगर का टुकड़ा है। उसका मांस मेरा मांस और उसका रक्त मेरा रक्त है। मगर अपने शरीर में जो रोग पैदा हो जाता है उसे विवश होकर हकीम से कहना पड़ता है। आल्हा अपनी दौलत के नशे में चूर हो रहा है। उसके दिल में यह झूठा खयाल पैदा हो गया है कि मेरे ही बाहु-बल से यह राज्य कायम है। राजा परमाल की आंखें लाल हो गयीं, बोला-आल्हा को मैंने हमेशा अपना लड़का समझा है। माहिल - लड़के से ज्यादा। परमाल - वह अनाथ था, कोई उसका संरक्षक न था। मैंने उसका पालन-पोषण किया, उसे गोद में खिलाया। मैंने उसे जागीरें दीं, उसे अपनी फौज का सिपहसालार बनाया। उसकी शादी में मैंने बीस हजार चन्देल सूरमाओं का खून बहा दिया। उसकी मॉँ और मेरी मलिनहा वर्षों गले मिलकर सोई हैं और आल्हा क्या मेरे एहसानों को भूल सकता है?
माहिल , मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। माहिल का चेहरा पीला पड़ गया। मगर सम्हलकर बोला- महाराज, मेरी जबान से कभी झूठ बात नहीं निकली। परमाल - मुझे कैसे विश्वास हो? महिल ने धीरे से राजा के कान में कुछ कह दिया। आल्हा और ऊदल दोनों चौगान के खेल का अभ्यास कर रहे थे। लम्बे-चौड़- मैदान में हजारों आदमी इस तमाशे को देख रहे थे। गेंद किसी अभागे की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता था। चोबदार ने आकर कहा-महाराज ने याद फरमाया है। आल्हा को सन्देह हुआ। महाराज ने आज बेवक्त क्यों याद किया? खेल बन्द हो गया। गेंद को ठोकरों से छुट्टी मिली। फौरन दरबार मे चौबदार के साथ हाजिर हुआ और झुककर आदाब बजा लाया। परमाल - ने कहा- मैं तुमसे कुछ मॉँगूँ? दोगे? आल्हा ने सादगी से जवाब दिया फरमाइए

परमाल- इंकार तो न करोगे?
आल्हा - ने कनखियों से माहिल की तरफ देखा समझ गया कि इस वक्त कुछ न कुछ दाल में काला है। इसके चेहरे पर यह मुस्कराहट क्यों ? गूलर में यह फूल क्यों लगे ? क्या मेरी वफादारी का इम्तहान लिया जा रहा है ?

जोश से बोला महाराज , मैं आपकी जबान से ऐसे सवाल सुनने का आदी नहीं हूँ। आप मेरे संरक्षक, मेरे पालनहार, मेरे राजा हैं। आपकी भँवों के इशारे पर मैं आग में कूद सकता हूँ और मौत से लड़ सकता हूँ। आपकी आज्ञा पाकर में असम्भव को सम्भव बना सकता हूँ आप मुझसे ऐसे सवाल न करें।

परमाल - शाबाश, मुझे तुमसे ऐसी ही उम्मीद है। आल्हा- मुझे क्या हुक्म मिलता है ?
परमाल- तुम्हारे पास नाहर घोड़ा है ?
आल्हा ने ‘जी हॉँ’ कहकर माहिल की तरफ भयानक गुस्से भरी हुई आँखों से देखा। परमाल- - अगर तुम्हें बुरा न लगे तो उसे मेरी सवारी के लिए दे दो। आल्हा कुछ जवाब न दे सका, सोचने लगा, मैंने अभी वादा किया है कि इनकार न करूँगा। मैंने बात हारी है। मुझे इनकार न करना चाहिए। निश्चय ही इस वक्त मेरी स्वामीभक्ति की परीक्षा ली जा रही है। मेरा इनकार इस समय बहुत बेमौका और खतरनाक है। इसका तो कुछ गम नहीं। मगर मैं इनकार किस मुँह से करूँ, बेवफा न कहलाऊँगा? मेरा और राजा का सम्बन्ध केवल स्वामी और सेवक का ही नहीं है, मैं उनकी गोद में खेला हूँ। जब मेरे हाथ कमजोर थे, और पॉँव में खड़े होने का बूता न था, तब उन्होंने मेरे जुल्म सहे हैं, क्या मैं इनकार कर सकता हूँ ? विचारो की धारा मुड़ी- माना कि राजा के एहसान मुझ पर अनगिनती हैं मेरे शरीर का एक-एक रोआँ उनके एहसानों के बोझ से दबा हुआ है मगर क्षत्रिय कभी अपनी सवारी का घोड़ा दूसरे को नहीं देता। यह क्षत्रियों- का धर्म नहीं। मैं राजा का पाला हुआ और एहसानमन्द हूँ। मुझे अपने शरीर पर अधिकार है। उसे मैं राजा पर न्यौछावर कर सकता हूँ। मगर राजपूती धर्म पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, उसे मैं नहीं तोड़ सकता।

जिन लोगों ने धर्म के कच्चे धागे को लोहे की दीवार समझा है, उन्हीं से राजपूतों का नाम चमक रहा है। क्या मैं हमेशा के लिए अपने ऊपर दाग लगाऊँ? आह! माहिल ने इस वक्त मुझे खूब जकड़ रखा है। सामने खूंखार शेर है; पीछे गहरी खाई। या तो अपमान उठाऊँ या कृतघ्न कहलाऊँ। या तो राजपूतों के नाम को डुबोऊँ या बर्बाद हो जॉँऊ। खैर, जो ईश्वर की मर्जी, मुझे कृतघ्न कहलाना स्वीकार है, मगर अपमानित होना स्वीकार नहीं। बर्बाद हो जाना मंजूर है, मगर राजपूतों के धर्म में बट्टा लगाना मंजूर नहीं। आल्ह- सर नीचा किये इन्हीं खयालों में गोते खा रहा था। यह उसके लिए परीक्षा की घड़ी थी जिसमें सफल हो जाने पर उसका भविष्य निर्भर था। मगर माहिल के लिए यह मौका उसके धीरज की कम परीक्षा लेने वाला न था। वह दिन अब आ गया जिसके इन्तजार में कभी आँखें नहीं थकीं। खुशियों की यह बाढ़ अब संयम की लोहे की दीवार को काटती जाती थी। सिद्ध योगी पर दुर्बल मनुष्य की विजय होती जाती थी। एकाएक परमाल ने आल्हा से बुलन्द आवाज में पूछा- किस दुविधा में हो? क्या नहीं देना चाहते?

आल्हा ने राजा से आंखें मिलाकर कहा-जी नहीं। परमाल- को तैश आ गया, कड़ककर बोला-क्यों?- आल्हा ने अविचल मन से उत्तर दिया-यह राजपूतों का धर्म नहीं है। परमाल-कया मेरे एहसानों का यही बदला है? तुम जानते हो, पहले तुम क्या थे और अब क्या हो? आल्हा-जी हॉँ, जानता हूँ। परमाल- तुम्हें मैंने बनाया है और मैं ही बिगाड़ सकता हूँ। आल्हा से अब सब्र न हो सका, उसकी आँखें लाल हो गयीं और त्योरियों पर बल पड़ गये। तेज लहजे में बोला- महाराज, आपने मेरे ऊपर जो एहसान किए, उनका मैं हमेशा कृतज्ञ रहूँगा। क्षत्रिय कभी एहसान नहीं भूलता। मगर आपने मेरे ऊपर एहसान किए हैं, तो मैंने भी जो तोड़कर आपकी सेवा की है। सिर्फ नौकरी और नामक का हक अदा करने का भाव मुझमें वह निष्ठा और गर्मी नहीं पैदा कर सकता जिसका मैं बार-बार परिचय दे चुका हूँ। मगर खैर, अब मुझे विश्वास हो गया कि इस दरबार में मेरा गुजर न होगा। मेरा आखिरी सलाम कबूल हो और अपनी नादानी से मैंने जो कुछ भूल की है वह माफ की जाए। माहिल की ओर देखकर उसने कहा- मामा जी, आज से मेरे और आपके बीच खून का रिश्ता टूटता है। आप मेरे खून के प्यासे हैं तो मैं भी आपकी जान का दुश्मन हूँ। आल्हा की मॉँ का नाम देवल देवी था। उसकी गिनती उन हौसले वाली उच्च विचार स्त्रियों में है जिन्होंने हिन्दोस्तान के पिछले कारनामों को इतना स्पृहणीय बना दिया है। उस अंधेरे युग में भी जबकि आपसी फूट और बैर की एक भयानक बाढ़ मुल्क में आ पहुँची थी, हिन्दोस्तान में ऐसी ऐसी देवियॉँ पैदा हुई जो इतिहास के अंधेरे से अंधेरे पन्नों को भी ज्योतित कर सकती हैं। देवल देवी से सुना कि आल्हा ने अपनी आन को रखने के लिए क्या किया तो उसकी आखों भर आए। उसने दोनों भाइयों को गले लगाकर कहा- बेटा ,तुमने वही किया जो राजपूतों का धर्म था। मैं बड़ी भाग्यशालिन हूँ कि तुम जैसे दो बात की लाज रखने वाले बेटे पाये हैं । उसी रोज दोनों भाइयों महोबा से कूच कर दिया अपने साथ अपनी तलवार और घोड़ो के सिवा और कुछ न लिया। माल –असबाब सब वहीं छोड़ दिये सिपाही की दौलत और इज्जत सबक कुछ उसकी तलवार है। जिसके पास वीरता की सम्पति है उसे दूसरी किसी सम्पति की जरुरत नहीं। बरसात के दिन थे, नदी नाले उमड़े हुए थे। इन्द्र की उदारताओं से मालामाल होकर जमीन फूली नहीं समाती थी । पेड़ो पर मोरों की रसीली झनकारे सुनाई देती थीं और खेतों में निश्चिन्तत की शराब से मतवाल किसान मल्हार की तानें अलाप रहे थे । पहाड़ियों की घनी हरियावल पानी की दर्पन –जैसी सतह और जगंली बेल बूटों के बनाव संवार से प्रकृति पर एक यौवन बरस रहा था।

मैदानों की ठंडी-ठडीं मस्त हवा जंगली फूलों की मीठी मीठी, सुहानी, आत्मा को उल्लास देनेवाली महक और खेतों की लहराती हुई रंग बिरंगी उपज ने दिलो में आरजुओं का एक तूफान उठा दिया था। ऐसे मुबारक मौसम में आल्हा ने महोबा को आखिरी सलाम किया । दोनों भाइयो की आँखे रोते रोते लाल हो गयी थीं क्योंकि आज उनसे उनका देश छूट रहा था । इन्हीं गलियों में उन्होंने घुटने के बल चलना सीखा था, इन्ही तालाबों में कागज की नावें चलाई थीं, यही जवानी की बेफिक्रियो- के मजे लूटे थे।


नसे अब हमेशा के लिए नाता टूटता था। दोनो भाई आगे बढते जाते थे , मगर बहुत धीरे-धीरे । यह खयाल था कि शायद परमाल ने रुठनेवालों- को मनाने के लिए अपना कोई भरोसे का आदमी भेजा होगा। घोड़ो को सम्हाले हुए थे, मगर जब महोबे की पहाड़ियो का आखिरी निशान ऑंखों से ओझल हो गया तो उम्मीद की आखिरी झलक भी गायब हो गयी। उन्होनें जिनका कोई देश नथा एक ठंडी सांस ली और घोडे बढा दिये।


उनके निर्वासन का समाचार बहुत जल्द चारों तरफ फैल गया। उनके लिए हर दरबार में जगह थीं, चारों तरफ से राजाओ के सदेश आने लगे। कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपने राजकुमार को उनसे मिलने के लिए भेजा। संदेशों से जो काम न निकला वह इस मुलाकात ने पूरा कर दिया। राजकुमार की खातिदारिया और आवभगत दोनों भाइयों को कन्नौज खींच ले नई। जयचन्द आंखें बिछाये बैठा था। आल्हा को अपना सेनापति बना दिया।

आल्हा और ऊदल के चले जाने के बाद महोबे में तरह-तरह के अंधेर शुरु हुए। परमाल कमजी शासक था। मातहत राजाओं ने बगावत का झण्डा बुलन्द किया। ऐसी कोई ताकत न रही जो उन झगड़ालू लोगों को वश में रख सके। दिल्ली के राज पृथ्वीराज की कुछ सेना सिमता से एक सफल लड़ाई लड़कर वापस आ रही थी। महोबे में पड़ाव किया। अक्खड़ सिपाहियों में तलवार चलते कितनी देर लगती है। चाहे राजा परमाल के मुलाजियों की ज्यादती हो चाहे चौहान सिपाहियों की, तनीजा यह हुआ कि चन्देलों और चौहानों में अनबन हो गई। लड़ाई छिड़ गई।

चौहान संख्या में कम थे। चंदेलों ने आतिथ्य-सत्कार के नियमों को एक किनारे रखकर चौहानों के खून से अपना कलेजा ठंडा किया और यह न समझे कि मुठ्ठी भर सिपाहियों के पीछे सारे देश पर विपत्ति आ जाएगी। बेगुनाहों को खून रंग लायेगा। पृथ्वीराज को यह दिल तोड़ने वाली खबर मिली तो उसके गुस्से की कोई हद न रही। ऑंधी की तरह महोबे पर चढ़ दौड़ा और सिरको, जो इलाका महोबे का एक मशहूर कस्बा था, तबाह करके महोबे की तरह बढ़ा। चन्देलों ने भी फौज खड़ी की। मगर पहले ही मुकाबिले में उनके हौसले पस्त हो गये। आल्हा-ऊदल के बगैर फौज बिन दूल्हे की बारात थी। सारी फौज तितर-बितर हो गयी। देश में तहलका मच गया।


अब किसी क्षण पृथ्वीराज महोबे में आ पहुँचेगा, इस डर से लोगों के हाथ-पॉँव फूल गये। परमाल अपने किये पर बहुत पछताया। मगर अब पछताना व्यर्थ था। कोई चारा न देखकर उसने पृथ्वीराज से एक महीने की सन्धि की प्रार्थना की। चौहान राजा युद्ध के नियमों को कभी हाथ से न जाने देता था। उसकी वीरता उसे कमजोर, बेखबर और नामुस्तैद दुश्मन पर वार करने की इजाजत न देती थी। इस मामले में अगर वह इन नियमों को इतनी सख्ती से पाबन्द न होता तो शहाबुद्दीन के हाथों उसे वह बुरा दिन न देखना पड़ता। उसकी बहादुरी ही उसकी जान की गाहक हुई।


उसने परमाल का पैगाम मंजूर कर लिया। चन्देलों की जान में जान आई। अब सलाह-मशविरा होने लगा कि पृथ्वीराज से क्योंकर मुकाबिला किया जाये। रानी मलिनहा भी इस मशविरे में शरीक थीं। किसी ने कहा, महोबे के चारों तरफ एक ऊँची दीवार बनायी जाय ; कोई बोला, हम लोग महोबे को वीरान करके दक्खिन को ओर चलें। परमाल जबान से तो कुछ न कहता था, मगर समर्पण के सिवा उसे और कोई चारा न दिखाई पड़ता था।


तब रानी मलिनहा खड़ी होकर बोली : ‘चन्देल वंश के राजपूतो, तुम कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? क्या दीवार खड़ी करके तुम दुश्मन को रोक लोगे? झाडू से कहीं ऑंधी रुकती है ! तुम महोबे को वीरान करके भागने की सलाह देते हो। ऐसी कायरों जैसी सलाह औरतें दिया करती हैं। तुम्हारी सारी बहादुरी और जान पर खेलना अब कहॉँ गया? अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि चन्देलों के नाम से राजे थर्राते थे। चन्देलों की धाक बंधी हुई थी, तुमने कुछ ही सालों में सैंकड़ों मैदान जीते, तुम्हें कभी हार नहीं हुई। तुम्हारी तलवार की दमक कभी मन्द नहीं हुई। तुम अब भी वही हो, मगर तुममें अब वह पुरुषार्थ नहीं है।


वह पुरुषार्थ बनाफल वंश के साथ महोबे से उठ गया। देवल देवी के रुठने से चण्डिका देवी भी हमसे रुठ गई। अब अगर कोई यह हारी हुई बाजी सम्हाल सकता है तो वह आल्हा है। वही दोनों भाई इस नाजुक वक्त में तुम्हें बचा सकते हैं। उन्हीं को मनाओ, उन्हीं को समझाओं, उन पर महोते के बहुत हक हैं। महोबे की मिट्टी और पानी से उनकी परवरिश हुई है। वह महोबे के हक कभी भूल नहीं सकते, उन्हें ईश्वर ने बल और विद्या दी है, वही इस समय विजय का बीड़ा उठा सकते हैं।’ रानी मलिनहा की बातें लोगों के दिलों में बैठ गयीं। जगना भाट आल्हा और ऊदल को कन्नौज से लाने के लिए रवाना हुआ। यह दोनों भाई राजकुँवर लाखन के साथ शिकार खेलने जा रहे थे कि जगना ने पहुँचकर प्रणाम किया। उसके चेहरे से परेशानी और झिझक बरस रही थी। आल्हा ने घबराकर पूछा—कवीश्वर, यहॉँ कैसे भूल पड़े? महोबे में तो खैरियत है? हम गरीबों को क्योंकर याद किया? जगना की ऑंखों में ऑंसू भर जाए, बोला—अगर खैरियत होती तो तुम्हारी शरण में क्यों आता। मुसीबत पड़ने पर ही देवताओं की याद आती है। महोबे पर इस वक्त इन्द्र का कोप छाया हुआ है। पृथ्वीराज चौहान महोबे को घेरे पड़ा है। नरसिंह और वीरसिंह तलवारों की भेंट हो चुके है। सिरकों सारा राख को ढेर हो गया। चन्देलों का राज वीरान हुआ जाता है। सारे देश में कुहराम मचा हुआ है।


बड़ी मुश्किलों से एक महीने की मौहलत ली गई है और मुझे राजा परमाल ने तुम्हारे पास भेजा है। इस मुसीबत के वक्त हमारा कोई मददगार नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी किम्मत बॅंधाये। जब से तुमने महोबे से नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी हिम्मत बँधाये। जब से तुमने महोबे से नाता तोड़ा है तब से राजा परमाल के होंठों पर हँसी नहीं आई। जिस परमाल को उदास देखकर तुम बेचैन हो जाते थे उसी परमाल की ऑंखें महीनों से नींद को तरसती हैं।


रानी महिलना, जिसकी गोद में तुम खेले हो, रात-दिन तुम्हारी याद में रोती रहती है। वह अपने झरोखें से कन्नैज की तरफ ऑंखें लगाये तुम्हारी राह देखा करती है। ऐ बनाफल वंश के सपूतो ! चन्देलों की नाव अब डूब रही है। चन्देलों का नाम अब मिटा जाता है। अब मौका है कि तुम तलवारे हाथ में लो। अगर इस मौके पर तुमने डूबती हुई नाव को न सम्हाला तो तुम्हें हमेशा के लिए पछताना पड़ेगा क्योंकि इस नाम के साथ तुम्हारा और तुम्हारे नामी बाप का नाम भी डूब जाएगा।


आल्हा ने रुखेपन से जवाब दिया—हमें इसकी अब कुछ परवाह नहीं है। हमारा और हमारे बाप का नाम तो उसी दिन डूब गया, जब हम बेकसूर महोबे से निकाल दिए गए। महोबा मिट्टी में मिल जाय, चन्देलों को चिराग गुल हो जाय, अब हमें जरा भी परवाह नहीं है। क्या हमारी सेवाओं का यही पुरस्कार था जो हमको दिया गया? हमारे बाप ने महोबे पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिये, हमने गोड़ों को हराया और चन्देलों को देवगढ़ का मालिक बना दिया। हमने यादवों से लोहा लिया और कठियार के मैदान में चन्देलों का झंडा गाड़ दिया।


मैंने इन्ही हाथों से कछवाहों की बढ़ती हुई लहर को रोका। गया का मैदान हमीं ने जीता, रीवॉँ का घमण्ड हमीं ने तोड़ा। मैंने ही मेवात से खिराज लिया। हमने यह सब कुछ किया और इसका हमको यह पुरस्कार दिया गया है? मेरे बाप ने दस राजाओं को गुलामी का तौक पहनाया। मैंने परमाल की सेवा में सात बार प्राणलेवा जख्म खाए, तीन बार मौत के मुँह से निकल आया। मैने चालीस लड़ाइयॉँ लड़ी और कभी हारकर न आया। ऊदल ने सात खूनी मार्के जीते। हमने चन्देलों की बहादुरी का डंका बजा दिया। चन्देलों का नाम हमने आसमान तक पहुँचा दिया और इसके यह पुरस्कार हमको मिला है? परमाल अब क्यों उसी दगाबाज माहिल को अपनी मदद के लिए नहीं बुलाते जिसकों खुश करने के लिए मेरा देश निकाला हुआ था !


गना ने जवाब दिया—आल्हा ! यह राजपूतों की बातें नहीं हैं। तुम्हारे बाप ने जिस राज पर प्राण न्यौछावर कर दिये वही राज अब दुश्मन के पांव तले रौंदा जा रहा है। उसी बाप के बेटे होकर भी क्या तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? वह राजपूत जो अपने मुसीबत में पड़े हुए राजा को छोड़ता है, उसके लिए नरक की आग के सिवा और कोई जगह नहीं है। तुम्हारी मातृभूमि पर बर्बादी की घटा छायी हुई हैं। तुम्हारी माऍं और बहनें दुश्मनों की आबरु लूटनेवाली निगाहों को निशाना बन रही है, क्या अब भी तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? अपने देश की यह दुर्गत देखकर भी तुम कन्नौज में चैन की नींद सो सकते हो?


देवल देवी को जगना के आने की खबर हुई। असने फौरन आल्हा को बुलाकर कहा—बेटा, पिछली बातें भूल जाओं और आज ही महोबे चलने की तैयारी करो। आल्हा कुछ जबाव न दे सका, मगर ऊदल झुँझलाकर बोला—हम अब महोबे नहीं जा सकते। क्या तुम वह दिन भूल गये जब हम कुत्तों की तरह महोबे से निकाल दिए गए? महोबा डूबे या रहे, हमारा जी उससे भर गया, अब उसको देखने की इच्छा नहीं हे। अब कन्नौज ही हमारी मातृभूमि है।


राजपूतनी बेटे की जबान से यह पाप की बात न सुन सकी, तैश में आकर बोली—ऊदल, तुझे ऐसी बातें मुंह से निकालते हुए शर्म नहीं आती ? काश, ईश्वर मुझे बॉँझ ही रखता कि ऐसे बेटों की मॉँ न बनती। क्या इन्हीं बनाफल वंश के नाम पर कलंक लगानेवालों के लिए मैंने गर्भ की पीड़ा सही थी? नालायको, मेरे सामने से दूर हो जाओं। मुझे अपना मुँह न दिखाओं। तुम जसराज के बेटे नहीं हो, तुम जिसकी रान से पैदा हुए हो वह जसराज नहीं हो सकता।

यह मर्मान्तक चोट थी। शर्म से दोनों भाइयों के माथे पर पसीना आ गया। दोनों उठ खड़े हुए और बोले- माता, अब बस करो, हम ज्यादा नहीं सुन सकते, हम आज ही महोबे जायेंगे और राजा परमाल की खिदमत में अपना खून बहायेंगे। हम रणक्षेत्र में अपनी तलवारों की चमक से अपने बाप का नाम रोशन करेंगे। हम चौहान के मुकाबिले में अपनी बहादुरी के जौहर दिखायेंगे और देवल देवी के बेटों का नाम अमर कर देंगे।
दोनों भाई कन्नौज से चले, देवल भी साथ थी। जब वह रुठनेवाले अपनी मातृभूमि में पहुँचे तो सूखें धानों में पानी पड़ गया, टूटी हुई हिम्मतें बंध गयीं। एक लाख चन्देल इन वीरों की अगवानी करने के लिए खड़े थे। बहुत दिनों के बाद वह अपनी मातृभूमि से बिछुड़े हुए इन दोनों भाइयों से मिले। ऑंखों ने खुशी के ऑंसू बहाए। राजा परमाल उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदल आया। आल्हा और ऊदल दौड़कर उसके पांव से लिपट गए। तीनों की आंखों से पानी बरसा और सारा मनमुटाव धुल गया।

दुश्मन सर पर खड़ा था, ज्यादा आतिथ्य-सत्कार का मौकर न था, वहीं कीरत सागर के किनारे देश के नेताओं और दरबार के कर्मचारियों की राय से आल्हा फौज का सेनापति बनाया गया। वहीं मरने-मारने के लिए सौगन्धें खाई गई। वहीं बहादुरों ने कसमें खाई कि मैदान से हटेंगे तो मरकर हटेंगें। वहीं लोग एक दूसरे के गले मिले और अपनी किस्मतों को फैसला करने चले। आज किसी की ऑंखों में और चेहरे पर उदासी के चिन्ह न थे, औरतें हॅंस-हँस कर अपने प्यारों को विदा करती थीं, मर्द हँस-हँसकर स्त्रियों से अलग होते थे क्योंकि यह आखिरी बाजी है, इसे जीतना जिन्दगी और हारना मौत है।

उस जगह के पास जहॉँ अब और कोई कस्बा आबाद है, दोनों फौजों को मुकाबला हुआ और अठारह दिन तक मारकाट का बाजार गर्म रहा। खूब घमासान लड़ाई हुई। पृथ्वीराज खुद लड़ाई में शरीक था। दोनों दल दिल खोलकर लड़े। वीरों ने खूब अरमान निकाले और दोनों तरफ की फौजें वहीं कट मरीं। तीन लाख आदमियों में सिर्फ तीन आदमी जिन्दा बचे-एक पृथ्वीराज, दूसरा चन्दा भाट तीसरा आल्हा। प्रथ्वीराज के शब्द भेदी बाण से उदल की मौत हुई ।

उदल की मौत से आल्हा समझ गया की इस धरती से जाने का समय आ गया है। उसने अपने गुरू गोरखनाथ जी का दिया हुया बिजुरिया नामक दिव्याश्त्र हाथ मे लेकर प्रथ्वीराज को मारने चल पड़े। आल्हा को आता देखकर प्रथ्वीराज का सेनापति चंदरबरदई ने प्रथ्वीराज से कहा राजा आल्हा के समान इस धरती पर कोई दूसरा वीर नहीं है यदि ज़िंदा रहना चाहते हो तो आल्हा के सामने हतियार मत उठाना। प्रथ्वीराज ने आल्हा के सामने हाथ जोड़ लिए ।

इसी समय वहाँ पर गुरु गोरखनाथ आगाए उन्होने आल्हा से कहा ये दिव्यास्त्र धरती के साधारण मनुस्यों पर चलाने के लिए नहीं है और बे आल्हा को अपने साथ सा शरीर स्वर्ग ले गए।


इसका असली लुत्फ़ सुनकर ही आ सकता है

आल्हा ऊदल का वीडियो सुनिए यहाँ पर



बैरागढ़ अकोढ़ी गाँव ज़िला जालौन मे आल्हा की गाड़ी हुई एक सांग आज भी है। जो माता शारदा के मंदिर के प्रांगड़ मे है। माता के मंदिर मे आज भी सुबह पुजारियों को दरवाजे खोलने पर दो फूल चढ़े मिलते है। कहते है ये फूल आल्हा चढ़ाते है। काफी लोगों ने सच्चाई पता करने की कोसिस की। लेकिन जो रात मे मंदिर मे रुका बो सुबह ज़िंदा नहीं मिला। आप भी जाकर सच्चाई पता कर सकते है।

ऐसी भयानक अटल और निर्णायक लड़ाई शायद ही किसी देश और किसी युग में हुई हो। दोनों ही हारे और दोनों ही जीते। चन्देल और चौहान हमेशा के लिए खाक में मिल गए क्योंकि थानेसर की लड़ाई का फैसला भी इसी मैदान में हो गया। चौहानों में जितने अनुभवी सिपाही थे, वह सब औरई में काम आए। शहाबुद्दीन से मुकाबला पड़ा तो नौसिखिये, अनुभवहीन सिपाही मैदान में लाये गये और नतीजा वही हुआ जो हो सकता था।


दक्षराज और देवल देवी के बड़े पुत्र आल्हा को पौराणिक परंपराओं में युधिष्ठिर का अवतार माना गया है। अतुलित बल के स्वामी होने के  बावजूद उन्होंने अपने बल का कभी अमर्यादित प्रदर्शन नहीं किया। आल्हा जिस युग की उपज थे, उसे परंपरागत रूप से सामंती काल कहा जाता है, और ‘जाकर कन्या सुंदर देखी तापर जाइ धरी तरवार’ इस युग का कटु सत्य था, लेकिन इसके बावजूद आल्हा एकपत्नी व्रती रहे।

यहां तक कि चुनारगढ़ की लड़ाई के समय जब राजा नैपाली के पुत्रों जोगा और भोगा ने छल-छद्म से आल्हा को बंदी बना लिया तो राजकुमारी सोनवॉ ने आल्हा के समक्ष चुपके से भाग चलने का प्रस्ताव रखा, जिसे आल्हा ने अस्वीकार कर दिया और एक कुमारी कन्या के हाथ से भोजन ग्रहण करना भी अनुचित समझा। यद्यपि यही सोनवॉ कालांतर में आल्हा की पत्नी बनीं और उनका एक नाम मछला भी प्रचलन में आया, क्योंकि वो रोज मछलियों को दाना खिलाती थीं।

आल्हा और वीर भूमि महोबा एक दूसरे के पर्याय हैं। यहां की सुबह आल्हा से शुरू होती है और उन्हीं से खत्म। यहां नवजात बच्चों के नामकरण भी आल्हखंड के नायकों के नाम पर रखे जाते हैं। कोई भी सामाजिक संस्कार आल्हा की पंक्तियों के बिना पूर्ण नहीं होता। यहां का अपराध जगत भी बहुत कुछ आल्ह खंड से प्रभावित होता है।

कुछ वषरें पहले एक व्यक्ति ने किसी आल्हा गायक को गाते सुना कि ‘जाके बैरी सम्मुख ठाड़े, ताके जीवन को धिक्कार’ तो उसने रात में ही जाकर अपने दुश्मन को गोली मार दी। आल्हा का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि 800 वर्षो के बीत जाने के बावजूद वह आज भी बुंदेलखंड के प्राण स्वरूप हैं।

बुंदेलखंड का जन-जन आज भी चटकारे लेकर गाता है- बुंदेलखंड की सुनो कहानी बुंदेलों की बानी में पानीदार यहां का घोड़ा, आग यहां के पानी में आल्हा-ऊदल गढ़ महुबे के, दिल्ली का चौहान धनी जियत जिंदगी इन दोनों में तीर कमानें रहीं तनी बाण लौट गा शब्दभेद का, दाग लगा चौहानी में पानीदार यहां का पानी, आग यहां के पानी में आल्हा की तरह उनके अनुज ऊदल भी अप्रतिम योद्धा थे।

उन्हें भीम का अवतार माना गया है। संपूर्ण आल्हखंड उनके साहसिक कारनामों से भरा पड़ा है। उनकी वीरता को देखकर उन्हें बघऊदल कहा जाता है।बैरागढ़ के मैदान में पृथ्वीराज के सेनापति चामुंडराय, जिसे आल्हखंड में चौड़ा कहा गया है, ने धोखे से ऊदल की हत्या कर दी थी। ऊदल की हत्या के बाद ही चौहान सेना चंदेल योद्धाओं का वध करने में सफल हुई थी। महोबा में इस वीर योद्धा के नाम से एक चौक का नाम ऊदल चौक रखा गया है। ऊदल को आदर देते हुए आज भी लोग इस चौक पर घोड़े से सवार होकर नहीं जाते हैं।

महोबा के अंग्रेज प्रशासक जेम्स ग्रांट ने लिखा है कि ‘एक बार बारात जा रही थी और दूल्हा घोड़े पर बैठा था। जैसे ही बारात ऊदल चौक पहुंची घोड़ा भड़क गया और उसने दूल्हे को उठाकर पटक दिया। मैं परंपरागत रूप से सुनता आया हूं कि ऊदल चौक पर कोई घोड़े पर बैठकर नहीं जा सकता और आज मैने उसे प्रत्यक्ष देख लिया।’

आल्हा-ऊदल के नाम पर महोबा शहर के ठीक बीचों-बीच दो चौक बनाए गए हैं। यहां आल्हा-ऊदल की दो विशालकाय प्रतिमाएं हैं। आल्हा अपने वाहन गज पशचावद पर सवार हैं। ऊदल अपने उड़न घोड़े बेदुला पर सवार हैं। ये दोनों प्रतिमाएं इतनी भीमकाय और जीवंत हैं कि इन्हें देखने लोग दूर-दूर से आते हैं। कीरत सागर के किनारे आल्हा की चौकी है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आल्हा के गुल्म के सैनिक रहते थे। ऐसी ढेर सारी चौकियां महोबा में आबाद हैं जो सामंती परिवेश की याद दिलाती हैं। आल्हा के पुत्र इंदल की चौकी मदन सागर के बीचों-बीच हैं। इसका संपर्क अथाह जलराशि के नीचे सुरंग के माध्यम से किले से था।

प्रशासन ने अब इस सुरंग को बंद कर दिया है। आल्हखंड के अनुसार इंदल भी अपने पिता आल्हा की तरह अमर माने गए हैं। यह कहा जाता है कि गुरु गोरखनाथ ने जब यह देखा कि आल्हा अपने दिव्य अस्त्रों से पृथ्वीराज का बध कर देगा तो वे उसे और इंदल लेकर कदली वन चले आए। इस कदली वन की पहचान हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उत्तराखंड के तराई इलाकों से की है। आल्हा की उपास्य चंडिका और मनियां देव आज भी महोबा में उसी प्रकार समादृत हैं। चंडिका देवी की उपासना महोबा वासी ही नहीं अपितु संपूर्ण बुंदेलखंड करता है। नवरात्र के अवसर पर यहां सारा बुंदेलखंड उमड़ पड़ता है। आल्हा की सुमरनी इन्हीं चंडिका मां से प्रारंभ होती है।

बुंदेलखंड में विवाह अथवा अन्य मांगलिक कार्यो का प्रथम निमंत्रण मां चंडिका को ही दिया जाता है। चंदेल नरेशों ने महोबा में तीन देवी पीठ बनाए थे- बड़ी चंडिका, छोटी चंडिका और मनियां देव का मंदिर। ये तीनों आज भी उसी प्रकार उपास्य हैं। बड़ी चंडिका इसमें सर्वाधिक भव्य और आदरणीय हैं। इस मंदिर के प्रांगण में शिव कंठ, नृत्यरत गणेश, पंचदेव चौकी और पचास से अधिक सती चिन्ह अन्य आकर्षण हैं। आल्हा का महोबा बारिश में अत्यंत आकर्षक हो जाता है। सावन में गली-कूचे आल्हा की तान से गुंजायमान हो जाते हैं। लेकिन महोबा में सर्वाधिक भीड़ होती है रक्षाबंधन के पर्व पर। यह पर्व यहां कजली महोत्सव के रूप में मनाया जाता है।


यह उस क्षण की स्मृति है जब महोबा के रणबांकुरों ने पृथ्वीराज को हराकर भगाने पर मजबूर कर दिया था। इस विजय के बाद ही महोबा में बहनों ने भाइयों को राखी बांधी थी। उस घटना को 800 वर्ष बीत गए लेकिन आज भी महोबा में रक्षाबंधन श्रावणी पूर्णिमा के दिन न मनाकर एक दिन बाद परेवा को मनाया जाता है। इस दिन सारा बुंदेलखंड महोबा में एकत्र हो जाता है। होटलों और धर्मशालाओं की बात छोडि़ए, लोगों के घर भी हाउसफुल हो जाते हैं। यह बुंदेलखंड का सबसे बड़ा मेला माना जाता है। हवेली दरवाजा, जहां पर 1857 में बागियों को फांसी दी गई थी, वहां से एक जुलूस निकलकर कीरत सागर के तट पर समाप्त होता है, जहां विजय के उपरांत महोबा की बहनों ने आल्हा-ऊदल और अन्य योद्धाओं को राखी बांधी थी।


कीरत सागर के किनारे आल्हा की चौकी जो इस समय एक मंच का रूप ले लेती है और सात दिन तक अहर्निश इस मंच पर बुंदेली नृत्य और गायन का प्रस्तुतीकरण होता रहता है। इस समय खजुराहो में जो विदेशी पर्यटक रहते हैं, वो भी महोबा आ जाते हैं। रहिलिया सागर का सूर्य मंदिर, शिव तांडव, महोबा का दुर्ग, पीर मुबारक भाह की मजार महोबा के अन्य आकर्षण हैं। पीर की मजार पर जियारत के करने के लिए हिंदुस्तान के कोने-कोने से जायरीन आते हैं। जैसे- महोबा का पुरातत्व निखर कर सामने आ रहा है, वैसे-वैसे आल्हा का महोबा खजुराहो और कालिंजर के साथ एक नए पर्यटन त्रिकोण के रूप में उभर रहा है।
जनता में अब तक यही विश्वास है कि वह जिन्दा है। लोग कहते हैं कि वह अमर हो गया। यह बिल्कुल ठीक है क्योंकि आल्हा सचमुच अमर है अमर है और वह कभी मिट नहीं सकता, उसका नाम हमेशा कायम रहेगा।


Comments

  1. Bundelkhand 2 bali is a best hindi blog to increase your dharmik Knowledge. and know more about - religious stories,History, sociel problem, releted. and this blog is about Guru Gorakhnath Ki Kahani.

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  2. हेलो सर मुझे आपका पोस्ट काफी अच्छा लगा आपने इस पोस्ट के माध्यम से बहुत अच्छी जानकारियां दी हैं मैं आशा करता हूं कि आप और भी जानकारियां लेटेस्ट लेटेस्ट अपने वेबसाइट पर पोस्ट करेंगे
    Deepak kumar

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  3. मान्यवर आपने लोग का आल्हा की कथावस्तु का संक्षेप में वर्णन कर दिया मेरी जन्मभूमि महोबा है औरबाल्य काल से ही लोक का आल्हा और उसमें निहित कथावस्तु को समझता आ रहा हूं मेरे द्वारा आल्हा पर लिखित धारावाहिक का प्रसारण आकाशवाणी छतरपुर से हो गया है 13 एपिसोड के इस धारावाहिक में शोध परक युद्धों का वर्णन किया गया है मेरे मार्गदर्शन में भविष्य पुराण में लोग का आल्हा की कथावस्तु का विवेचन पर पीएचडी के लिए शोध प्रबंध भी लिखाया जा चुका है किसान चैनल दिल्ली में मुझे बुलाकर 1 घंटे का आधार पर केंद्रित साक्षात्कार भी लिया गया यह सब उल्लेख करने का मेरा उद्देश्य है नहीं है कि मैं कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति हूं बल्कि यह उद्देश्य है कि हमें अभी ऑल खंड के अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन का सामना करते हुए यथार्थ तक पहुंचना होगा अलग-अलग गायकी में गठान को में भी अंतर पड़ा है और आल्हा गायक जोगा देता है सोता उसी को सही मानते हैं विडंबना यह है कि आल्हा गायक का गायन शोध परक अध्ययन का आधार नहीं होता है अपितु परंपरागत गायकी होता है अतः यह कथानक विविध उपकथा ओं को जन्म दे देता है और वाद विवाद तर्क कुतर्क को भी अवसर देता है आवश्यकता इस बात की है कि हमें आला ऊदल के अस्तित्व को पुरातात्विक साक्ष्य से सिद्ध करना होगा दक्षराज बच्छराज के दो भाई और भी थे टोडर और रहमल यह दो भाई महोबा के दुर्ग के द्वार पर हुए जंबे के पुत्र करिया से हुए संक्षिप्त युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए थे कार्वी इलाहाबाद मार्ग पर जसरा से बाई और 15 किलोमीटर दूरी पर चिल्ला ग्राम है यहां आल्हा ऊदल की कचहरी देखी जा सकती है उसमें पांच कमरे आंगन और बरामदा है अतीत में यह बहुत बड़ा भवन रहा होगा क्योंकि आस पास बहुत से पत्थर पड़े हुए हैं वर्तमान में मेरे द्वारा हिंदी संस्कृत यास पुरातत्व संगीत और बुंदेली लोक संस्कृति के शोधार्थियों का मार्गदर्शन किया जा रहा है आल्हा ऊदल पर केंद्रित इतिहास पर आपने कार्य किया है और उसे जनसामान्य तक पहुंचाने का प्रयास किया है इसके लिए बहुत-बहुत बधाई संतोष कुमार पटैरिया हीरो एजेंसी के पीछे चरखारी बाईपास मोहल्ला मलक पुरा महोबा 99 56 9592 70

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  4. में भी महोबा से बिलोंग करता हु
    इतनी जानकारी मिलने पर मुझे
    भी गर्ब होता है
    Harish bundela

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  5. हरीश बुंदेला
    भटीपूरा महोबा रैदास धर्मसाला

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  6. This comment has been removed by the author.

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  7. भारतीय इतिहास मे ऐसे अनेकों वीर एवम वीरांगनाओ की कथाएँ है जिन्हें सुनकर आज भी मन जोश से भर उठता है.आज हम ऐसे ही दो वीर भाई आल्हा-ऊदल की गाथा, alha udal history in hindi आल्हा-ऊदल स्टोरी, आल्हा-ऊदल और पृथ्वीराज, आल्हा-ऊदल जंग की जानकारी लाए हैं.

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