दशावतार का विष्णु मंदिर
देवगढ़ का इतिहास में बहुत ही ख़ास स्थान रहा है। यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। इसके अन्य दर्शनीय स्थलों में मुख्य हैं- सैपुरा ग्राम से 3 मील (लगभग 4.8 कि.मी.) पश्चिम की ओर पहाड़ी पर एक चतुष्कोण कोट, नीचे मैदान में एक भव्य विष्णु का मंदिर, यहाँ से एक फलांग पर वराह मंदिर, पास ही एक विशाल दुर्ग के खंडहर, इसके पश्चात दो और दुर्गों के भग्नावशेष, एक दुर्ग के विशाल घेरे में 31 जैन मंदिरों और अनेक भवनों के खंडहर।
देवगढ़ में सब मिला कर 300 के लगभग अभिलेख मिले हैं, जो 8वीं शती से लेकर 18वीं शती तक के हैं। इनमें ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी द्वारा अंकित अठारह लिपियों का अभिलेख तो अद्वितीय ही है। चंदेल नरेशों के अभिलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। देवगढ़ बेतवा नदी के तट पर स्थित है। तट के निकट पहाड़ी पर 24 मंदिरों के अवशेष हैं, जो 7वीं शती ई. से 12वीं शती ई. तक बने थे।
देवगढ़ का शायद सर्वोत्कृष्ट स्मारक ‘दशावतार का विष्णु मंदिर’ है, जो अपनी रमणीय कला के लिए भारत भर के उच्च कोटि के मंदिरों में गिना जाता है। इसका समय छठी शती ई. माना जाता है, जब गुप्त वास्तु कला अपने पूर्ण विकास पर थी। मंदिर का समय भग्नप्राय अवस्था में है, किन्तु यह निश्चित है कि प्रारम्भ में इसमें अन्य गुप्त कालीन देवालयों की भांति ही गर्भगृह के चतुर्दिक पटा हुआ प्रदक्षिणा पथ रहा होगा।
इस मंदिर के एक के बजाए चार प्रवेश द्वार थे और उन सबके सामने छोटे-छोटे मंडप तथा सीढ़ियां थीं। चारों कोनों में चार छोटे मंदिर थे। इनके शिखर आमलकों से अलंकृत थे, क्योंकि खंडहरों से अनेक आमलक प्राप्त हुए हैं। प्रत्येक सीढ़ियों की पंक्ति के पास एक गोखा था। मुख्य मंदिर के चतुर्दिक कई छोटे मंदिर थे, जिनकी कुर्सियाँ मुख्य मंदिर की कुर्सी से नीची हैं। ये मुख्य मंदिर के बाद में बने थे।
इनमें से एक पर पुष्पावलियों तथा अधोशीर्ष स्तूप का अलंकरण अंकित है। यह अलंकरण देवगढ़ की पहाड़ी की चोटी पर स्थित मध्ययुगीन जैन मंदिरों में भी प्रचुरता से प्रयुक्त है। दशावतार मंदिर में गुप्त वास्तु कला के प्रारूपिक उदाहरण मिलते हैं, जैसे, विशाल स्तम्भ, जिनके दंड पर अर्ध अथवा तीन चौथाई भाग में अलंकृत गोल पट्टक बने हैं। ऐसे एक स्तम्भ पर छठी शती के अंतिम भाग की गुप्त लिपि में एक अभिलेख पाया गया है, जिससे उपर्युक्त अलंकरण का गुप्त कालीन होना सिद्ध होता है।
इस मंदिर की वास्तु कला की दूसरी विशेषता चैत्य वातायनों के घेरों में कई प्रकार के उत्कीर्ण चित्र हैं। इन चित्रों में प्रवेश द्वार या मूर्ति रखने के अवकाश भी प्रदर्शित हैं। इनके अतिरिक्त सारनाथ की मूर्तिकला का विशिष्ट अभिप्राय स्वस्तिकाकार शीर्ष सहित स्तम्भयुग्म भी इस मंदिर के चैत्यवातायनों के घेरों में उत्कीर्ण है। दशावतार मंदिर का शिखर ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण संरचना है। पूर्व गुप्त कालीन मंदिरों में शिखरों का अभाव है
यह विश्व का इकलौता मंदिर है, जहां भगवान विष्णु के दशावतारों को एक ही मंदिर में पिरोया गया है। इसी वजह से
इसे दशावतार पुकारा गया। दशावतार मंदिर को इसलिए भी श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि यहां रामायण और महाभारत की देव प्रतिमाओं का अनूठा संगम है। मूर्तियों में जहां द्रौपदी और पांडव एक साथ दर्शाए गए हैं, वहीं हाथी की पुकार पर सब कुछ छोड़ विष्णु प्रतिमा का भी एक-एक भाव अपने आप में नायाब है।
विशेषज्ञों के मुताबिक, जो पंच ललित कलाएं हैं, जिनके आधार पर हमारी संपूर्ण कलाएं समाहित की जाती हैं, उन सभी कलाओं का यहां की मूर्तियों में दर्शन मिलता है। यहां की मूर्तियों में भारतीय दर्शन के सभी प्राचीन धार्मिक चिन्हों- हाथी, शंख पुष्प, कमल आदि का भी समावेश किया गया है, जो देश के दूसरे हिस्सों की शिल्पकृतियों में नहीं मिलता। कई मूर्ति शिल्पकारों का तो यहां तक कहना है कि देवगढ़ में हिंदुस्तान की सर्वश्रेष्ठ कला का नमूना देखने को मिलता है।
इतिहासकारों के मुताबिक, पुरातात्विक महत्व के हिसाब से जो वैष्णव कला से संबंधित मूर्ति शिल्प है उसके चंद मंदिर ही विश्व में बचे हैं जो अंकोरवाट, जावा, सुमात्रा और इंडोनेशिया में हैं। इनके अलावा सिर्फ दशावतार मंदिर ही इस श्रंखला की आखिरी कड़ी है।
यहां की मूर्तियों में सबसे लोकप्रिय गजेंद्र की मोक्ष मुद्रा इतनी वास्तविक और सजीव है कि उसे देखते ही पता चलता है कि भगवान विष्णु बहुत ही हड़बड़ी में आए हैं। उन्होंने पादुकाएं भी नहीं पहनी हैं। नंगे पैर हैं और ऐसे भाग रहे हैं जैसे किसी आपात स्थिति में जा रहे हों। इसके अलावा जिस हाथी का उद्धार करने विष्णु साक्षात आए, उसकी मुद्रा भी बेहद अहम है। हाथी को देखने से लगता है कि वह मृतप्राय स्थिति में है और उसे भगवान विष्णु के अलावा कोई उद्धारक नहीं दिखाई दे रहा। उसके चेहरे पर पीड़ा की जो रेखाएं हैं उसे मूर्ति शिल्प के जरिये इतने वास्तविक तरीके से उकेरा गया है कि उसे देखकर प्रतीत होता है कि यह मूर्ति न होकर साक्षात हाथी खड़ा हो गया हो। इसके अलावा शेषसाही प्रतिमा पर अगर ध्यान दें तो पाएंगे कि जो एक व्यक्ति शयन की स्थिति में होता है तो बहुत ही आरामदेह मुद्रा में होता है और ऐसा प्रतीत होता है कि वह सारी चिंताओं से मुक्त होकर शयन कर रहा है।
इसी तर्ज पर भगवान विष्णु के चेहरे के जो भाव मूर्ति शिल्पकार ने उकेरे हैं उसमें ऐसा लग रहा है कि बिल्कुल आराम की मुद्रा में भगवान हैं और लक्ष्मी जी चरण दबा रही हैं।
इतिहासकारों के मुताबिक, 15वीं शताब्दी के बाद की मूर्तियों में ये खासियत देखने को नहीं मिलती, क्योंकि मुगलकाल से जो मूर्तिकला का क्षरण शुरू हुआ, उसके बाद मूर्ति शिल्प में न वह हुनर रह गया है और न वह कौशल रह गया है, और न ही वह परंपरा जीवित रह पाई।
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