माँ वनखंडी देवी का इतिहास



शेष जी भी अपने सहस्र मुख से जिसका वर्णन नहीं कर सकते, शंकर जिसको अपने पंचमुख से नहीं कह सकते,चारो वेदों के ज्ञाता, जगत के रचनाकार ब्रम्ह चार मुख से, सर्वज्ञ विष्णु,एवं कार्तिकेय छः मुख से विघ्नहर्ता-सर्वसिद्धिकर्ता गणेश योगिन्द्रो के गुरु भी जिसकी शक्ति का बखान नही कर पाते, जिनके गुणों के वर्णन में सरस्वती भी जड़ीभूत हो जाती हैं, सनत्कुमार,धर्म,सनंदन,सनातन ,सनक,कपिल, सूर्य,एवं ब्रम्हा के अन्य श्रेष्ठ एवं सिद्ध पुत्र श्री जिनके गुण नही कह सकते तो दुसरे जड़ बुद्धियों की क्या कहें| ब्रम्हा, विष्णु, शिव आदि जिनके चरण कमलो का ध्यान करते हैं,जो भक्तो के लिए ही साध्य है एवं दूसरो के लिए दुर्लभ हैं | कोई कोई ही जिनके गुणों का कुछ-कुछ वर्णन-कीर्तन जानते हैं,उनसे अधिक ज्ञानियों के गुरु गणेश जानते हैं एवं सबसे अधिक सर्वज्ञ शंकर जानते हैं |

परमात्मा की वह चित्त रूपिणी शक्ति जो कालक्रमानुसार विभिन्न रूप धारण करती है तथा ब्रम्हा,विष्णु,महेश जिसकी कृपा से रक्षा करते हैं वह त्रिदेवों की चित्त रूपिणी शक्ति माँ वनखंडी कालपी धाम में निवास करती हैं | भक्तो के हितार्थ शक्ति स्वरूपा माँ विभिन्न अवसरों पर विभिन्न कालों में अनेक लीलाओं द्वारा अपने स्वरुप का दर्शन कराती हैं | सृष्टि के प्रारंभ से निराकार स्वरुप में प्रतिष्ठित यह शक्तिपुंज जो वर्तमान में वनखंड में विराजत होने के कारण वनखंडी तथा अच्छे-अच्छे शूरमाओं अभिमानिओं एवं विघ्नों का खंडन करने के कारण बलखंडी नाम से जानी जाती हैं |
प्राचीन काल में सुधांशु नाम के एक ब्राह्मण थे जिनके कोई संतान नही थी | एक बार देवर्षि नारद मृत्युलोक में घूमते हुए उनके घर के सामने से निकले | अपने घर के बहार उन्होंने सुधांशु ब्राम्हण को दुखी: अवस्था में बैठे हुए देखा | उस अवस्था में बोथे देख देवर्षि को उसपर दया आयी | उन्होंने उससे दुखी होने का कारन पुछा | ब्राम्हण ने संतान सुख न होने की अपनी व्यथा कही एवं संतान प्राप्ति हेतु प्रार्थना की | नारद ने कहा की वह उसकी बात को भगवान से कहकर उसके दू:ख को मिटाने की प्रार्थना करेंगे | उस ब्राम्हण की बात को सुनकर नारद जी विष्णुलोक पहुंचे एवं भगवान् विष्णु से उस ब्राम्हण की बात कही | भगवान् एन कहा कि इस जन्म में उसके कोई संतान योग नही है | यही बात नारद जी ने ब्रम्हा एवं भगवान् शंकर से पूछी | उन्होंने ने भी यही जवाब दिया | यह बात नारद जी वापस लौटकर उस ब्राम्हण को बताई | निसंतान ब्राम्हण यह सुनकर दू:खी हुआ पर भावी को कौन बदल सकता है | कुछ वर्षोपरांत एक दिन सात वर्ष कि एक कन्या उसके द्वार के सामने सेः कहते हुए निकली कि ” जो कोई मुझे हलुआ-पूड़ी का भोजन कराएगा वह मनवांछित वर पायेगा |” यह बात उस सुधांशु ब्राम्हण की पत्नी ने सुनीं तो दौड़कर बहार आयी | ब्राम्हण पत्नि ने उस कन्या को बुलाया, उस आदर से बैठाकर पूछा कि ” मै यदि आपको हलुआ-पूड़ी खिलाऊं तो क्या मेरी मनोकामना पूर्ण होगी ?” “हाँ अवश्य पूर्ण होगी |” ऐसा उस कन्या ने कहा | तत्पश्चात उस ब्राम्हण पत्नी ने पूर्ण श्रद्धा एवं विश्वास के साथ उस कन्या को हलुआ-पूड़ी का भोजन कराया | भोजनोपरांत ब्राम्हण पत्नी ने कहा- देवी मेरे कोई संतान नही है ,कृपया मुझे संतान सु:ख का वर दीजिये | कन्या ने ब्राम्हण पत्नी से “तथास्तु” कहा | इसके बाद ब्राम्हण पत्नी ने उस कन्या से उसका नाम व धाम के बारे में पूछा | उस कन्या ने अपना नाम जगदम्बिका तथा अपना धाम अम्बिकावन बताया | समय पर ब्राम्हण को पुत्र प्राप्ति हुई | पुत्र धीरे-धीरे जब कुछ बड़ा हुआ कुछ समय पश्चात एक दिन देवर्षि नारद जी का पुन: आगमन हुआ | नारद जी ने उस ब्राम्हण से पूछा ये पुत्र किसका है ? तो ब्राम्हण ने बताया कि यह पुत्र मेरा है | नारद जी को पहले तो विश्वास नही हुआ, फिर उस ब्राम्हण कि बात सुनकर भगवान् विष्णु के लोक में जाकर उनसे ब्राम्हण पुत्र के बारे में चर्चा की | भगवान् ने कहा ऐसा हो ही नही सकता की ब्राम्हण को कोई संतान हो | यही बात ब्रम्हा और भगवान् शंकर ने भी कही | तब नारद जी ने त्रिदेवों से स्वयं चलकर देखने के लिए प्रार्थना की | नारद जी की प्रार्थना पर त्रिदेव नारद जी के साथ ब्राम्हण के यहाँ पधारे | ब्राम्हण से पुत्र प्राप्ति का सम्पूर्ण वृतांत जानकार त्रिदेव नारद जी एवं वह ब्राम्हण के साथ अम्बिकावन को प्रस्थान किये | अम्बिकावन में उन्हें वह देवी एक वृक्ष के नीचे बैठी हुई दिखी | उस समय सर्दी का मौसम था एवं शीत लहर ले साथ वर्षा भी हो रही थी | अत्यंत शीत लहर के कारण इन्हें ब्राम्हण के साथ-साथ सर्दी का बहुत तेजी से अनुभव हो रहा था | ये सभी उस देवी को देख कर पहुंचे तो देखा कि देवी के सिर पर बहुत बड़ा जूड़ा बंधा हुआ है एवं पास में ही एक पात्र में घृत(घी) रखा हुआ है | उस कन्या ने इन्हें ठण्ड से कांपते हुए देखा तो पास में रखे हुए घी को अपने बालों में लगाकर उसमे अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी ताकि इनकी ठण्ड दूर हो सके | परन्तु यह दृश्य देखकर सभी अत्यतेंन भयभीत हो गए एवं देवी से अग्नि शांति हेतु प्रार्थना करने लगे, तब देवी ने अग्नि को शांत कर पुछा , की आप किस लिए यहाँ आये हुए हैं ? त्रिदेव अपने आने का सम्पूर्ण कारन बताते हुए बोले; “देवी हम सब कुछ जान चुके हैं कि आप सर्व समर्थ हैं | जो हम नही कर सकते है वो आप कर सकती हैं | यह अम्बिका वन ही अपना कालपी धाम है और माता जगदम्बिका ही माँ वनखंडी हैं | कोई-कोई इन्हें योग माया के नाम से जानते हैं | ”

वर्तमान काल में झांसी कानपुर रेलवे लाइन ब्रिटिश काल के समय जब बिछाई जा रही थी , उस समय के अंग्रेज अधिकारी तथा कालपी के पटवारी कानूगो आदि उस स्थान का सर्वेक्षण कर रहे थे उस समय ब्रिटिश अधिकारी को दो सफ़ेद शेर दिखाई दिए | ब्रिटिश अधिकारी ने उनका शिकार करना चाहा तो साथ के लोगो ने ऐसा न करने का विनय किया | उनकी बात सुनकर कुछ क्षण के लिए अधिकारी हिचका इतने में वो शेर आगे निकल गए | किन्तु अधिकारी का मन नही माना एवं उसने उन शेरों का पीछा किया | अधिकारी के साथ दुसरे अन्य लोग भी उनके साथ चले | जंगल में विचरते हुए वे शेर एक झड़ी की तरफ आकर गम हो गए | जब सभी लोग घूम कर उस घनी झाडी के सामने आये तो वे शेर पत्थर के बने हुए वहां पर बैठे थे |

उनके (शेरों के) पीछे झाड़ियों के अन्दर माँ की पिण्डी का दर्शन हो रहा था | उस समय यह पूरा क्षेत्र घनघोर जंगल के रूप में था माँ की पिण्डी झाड़ियों में एक टीले के ऊपर दबी हुई थी | जो अपना हल्का सा आभास दे रही थी | उस दृश्य को देखकर वह अंग्रेज अधिकारी एवं उनके साथ के सभी लोग भयभीत एवं चकित हो गए एवं आश्चर्य-चकित अवश्था में उलटे पैरों वापस लौट पड़े |जिस विवरण को उस समय के पटवारी ने अपनी दैनिक डायरी में लिपिबद्ध किया | कुछ समय तक यह घटना चन्द ही लोगो तक रही लेकिन उसी समय एक और घटना घटी | आस-पास क्षेत्र के चरवाहे जंगल में अपने जानवर चराया करते थे | उनमे से एक चरवाहे की गाय जो बछड़े को जन्म देने के उपरांत जंगल में चरने को आती थी किन्तु शाम को जब पहुँचती तो उसके थानों में दूध नही रहता था | चरवाहा इस बात को देख कर कुछ दिन हैरान रहा | उसके बाद इसकी जांच करने का निश्चय किया कि इस गाय का दूध कौन निकाल लेता है | यह सोच कर दुसरे दिन उसने जंगल में चरते समय उस गाय का पीछा किया | तो उसने देखा की गाय एक टीले पर जाकर झाड़ियों के बीच में खड़ी हुई तथा उस टीले पर दिखाई दे रहे एक पत्थर पर गाय के थनों से दूध निकल कर बहने लगा|

जैसे वह गाय उस दूध से उस पत्थर का अभिषेक कर रही हो | उस दृश्य को देखकर चरवाहा अत्यतेंन आश्चर्य-चकित हुआ एवं उसने अपने साथियों को बुला कर यह दृश्य दिखाया | उन सबने यह दृश्य देख कर उस पत्थर को निकलना चाह किन्तु जितना वो खोदते उतना ही वो पत्थर गहरा होता जाता था | अंत में उस पत्थर को उसी स्थान पर छोड़ दिया गया एवं सभी अपने-अपने घर को आ गए | रात्री में उस चरवाहे को माँ ने स्वप्न में बताया कि मैं जगतजननी जगदम्बा हूँ| तथा वह मेरा ही स्थान है | वहां पर जो कोई भी हलुआ-पूड़ी का मुझे भोग लगाएगा उसकी सभी अभिलाषाओं की मैं पूर्ति करुँगी |


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