सामाजिक तथा आर्थिक परिवर्तन के दौर में सक्रमण काल से गुजर रहें बुन्देली भूभाग में लोक नृत्य अब विलुप्त की कगार पर पहुंच गये है बुन्देली लोक नृत्य पंरम्पराओं को बचाने के लिए समय रहते ध्यान नहीं दिया गया तो सैरा नृत्य, डोमरहा नृत्य, जवारा नृत्य, कीर्तन नृत्य, कानड़ा नृत्य, चांचरा या पाइ-डण्डा नृय, झांझिया नृत्य, मोनिया नृत्य, देवी नाच, चमराहा नृत्य, कहारों का नाच, राई नृत्य, ढिमराई नृत्य, कुम्हराई नृत्य, दुलदुल घोड़ी नाच, खशुआ नाच, चांगलिया नाच, सिर्फ अतीत का इतिहास बनकर रह जायेगें। कानडा नृत्य धोवी जाति का परम्परागत नृत्य है।भगवान कृष्ण या कान्हा से सम्बन्धित इस नृत्य को नया जीवन तथा नया सम्बल और पुर्न प्रतिष्ठा दिलाने वाले सागर के लक्ष्मीनारायण रजक ने कहा था कि किसी जमाने में कानड़ा नृत्यकों को समाज में इतना सम्मान और नेंग मिलता था कि उसे और जीवनकोपार्जन के लिए नहीं भटकना पड़ता था पहले विवाह में पग-पग पर कनाडियाई होती थी हल्दी चढ़ाते समय, मैहर का पानी भरते समय, मण्डप छपते समय, बरात विदा होते समय, बारात की अगुवानी में कनाड़ियाई होती थी बिना कनड़ा नृत्य की शादी विवाह नहीं होते थे।
Rai Dance -- Through the centuries Raai has been the folk dance which has touched its peak as a classical dance. Later, Raai degenerated its aesthetical value and lost its classical expression. Today it remains simply as a folk dance. Raai means a mustard seed. When a mustard seed is thrown into a saucer, the seed starts to swings around. This way mustard seed moves in the saucer, the dancers also swings and when the singers sing the lyrics of the song the dancers follow the beats with foot steps. It is a duet and the competition is between the beats of the drum and foot steps of the dancer. The drummer and the dancer try to win each other and this comp
लेकिन आजकल कानड़ा को कोई बुलाते नहीं है पहले कनड़ा विवाह का अनिवार्य अंग था इसलिए कानड़ा के बहुत से कालाकार होते थे लेकिन आजकल कानड़ा नृत्य के स्थान पर विवाह में लोग बैण्ड बाजों या रेकाडिंग से काम निकालने लगंे है, इसलिए कानड़ा नृत्य के कलाकार आज न के बराबर है। अब तो कोई शादी विवाह में कानड़ा करवाते है आर्थिक अभाव के कारण ही कानड़ा नृत्य छूटता जा रहा है केवल सांरगी लोटा से कानड़ा नृत्यों का आज पेट नही भरता, वे कानड़ा को छोड़कर अन्य मजदूरी की तलाश में भटकने लगे इससे हमारे लोक कला जगत की एक महत्वपूर्ण विधा की बहुत बड़ी हानि हुई है।
पहले एक ही विवाह में दो-तीन कानड़ा नृत्यक पहुॅचते थे वहां प्रतिस्पर्धा होती थी प्रत्येक कानड़ा कलाकार अपनी-अपनी कला के माध्यम से श्रेष्टता सिद्ध करता था अब तो गणेश उत्सव या नवरात्रि उत्सव ही कानड़ा नृत्य के अवसर रह गये है कभी-कभी शिशु जन्म पर खुशी से कोई-कोई कनिड़ाई गंवाते नचवाते हैं। ऊॅचे-परे गांव के किसान जैसी कद-काठी वाले जब लक्ष्मीनारायण रजक कानड़ा की पारम्परिक भेश भूषा और सिंगार कुर्ता, बांगा, कंदिया, सेली, सेली, वाजूबंद, पकड़ी, कलगी, लगाए पैरों में घुघरू बांधे हाथ में सांरगी लिये निकलते है तो कानड़ा के इस सज्जन कलाकार को देखकर दर्शक ठगे रह जाते है और जब सारंगी मृदंग लोटा, झूला, कसावरी, टिमकी और खजरी की संगत के साथ कानड़ा गीत में बुन्देली शब्द, बिरहा, रमपुरिया, राई सैरा, दादरों की धुन लय ताल में निकालते है तो कानड़ा नृतक की पैरो की थिरकन और कमर की लचक तथा नृत्य की वृत्तीय गतियां देखते ही बनती है।
लक्ष्मीनारायण रजक कानड़ा के दक्ष कालाकार हैं। जिन्होंने इस नृत्य को नई गति प्रदान की श्री रजक ने कृष्ण लीला, रामचरित महाभारत की कथाओं श्रृगांर तथा सामाजिक विषयों पर कानड़ा की परम्मपरागत धुनों में बुन्देली की कई रचनाएं की और अन्य कवियों के छन्दों को गाना शुरू किया। लेकिन उनके द्वारा पुर्न प्रतिष्ठित यह कला काल के गाल में समाने के लिए धीमे-धीमें जा रही हैं।
बुन्देली लोक बाध्य अलगोजा, मौहर, रमतुला, बीन, डपला, दौंड़, नगाड़ा, खजली, अंजलि, नगडिया, तांसा, चंग, नरगा, इकतारा, कसौरा, जोरी या झांझ, चिमटा आदि बाद्यय बजाने वाले कलाकार धीरे-धीरे सिमट रहें है। लोक संस्कृति विभाग सिर्फ नाम के आयोजन करके भारी धनराशि लोक संस्कृति के नाम पर व्यय तो कर रही है लेकिन इन नृत्यों को बचाने के लिए कुछ सार्थक प्रयास नहीं हो रहें है झांझिया नृतक द्वारा गाये जाने वाला यह गीत ‘‘हरी री चिरैया, तोरे पियेर रे पंख, सो उड़-उड़ जाये, बबुरा तोरी डार’’ की गति हो रही है राई नृत्य करने वाली बेड़नी की हालत अत्यन्त खराब है राई, बुन्देलखण्ड के श्रेष्ठतम लोक नृत्यों में से हैं।
भादों में कृष्ण जन्माष्टमी से प्रारम्भ होकर, यह नृत्य फाल्गुन माह में होली तक चलता है। इस नृत्य का नाम राई क्यों पड़ा, इसका तो कोई निश्चित कारण पता नहीं चल पाया, पर बुन्देलखण्ड की बेड़नियों द्वारा किया जाने वाला और अपनी विशिष्टता में मयूर-मुद्राओ का सौन्दर्य समेटै, यह नृत्य अपने यौवन काल में राज्याश्रृय प्राप्त दरबारी नृत्य रहा हैं अब इसे अन्य लोग भी करने लगे हैं। बेड़नियाॅ यह नृत्य करते हुए, अपने यौवन काल में राज्याश्रृय प्राप्त दरबारी नृत्य रहा है। अब इस अन्य लोग भी करने लगे हैं।
बेड़िनियाॅ यह नृत्य करते हुए, अपनी शरीर को इस प्रकार लोच और रूप देती है कि बादलों की गड़गड़ाहट पर मस्त होकर नाचने वाले मोर की आकृति का आभास मिलता हैं। इसका लहंगा सात गज से लेकर सत्तरह गज तक घेरे का हो सकता है। मुख्य नृत्य मुद्रा में अपने चेहरे को घूॅघट से ढंककर लहंगे को दो सिरों से जब नर्तकी अपेन दोनों हाथों से पृथ्वी के सामानान्तर कन्धें तक उठा लेती है, तो उसके पावों पर से अर्द्ध चन्द्राकार होकर, कन्धे तक उठा यह लहंगा नृत्यमय मयूर के खुले पंखों का आभास देता हैं।
नृत्य में पद संचालन इतना कोमल होता हे कि नर्तकी हवा मेें तैरती सी लगती है। इसमें ताल दादरा होती है। पर अन्त में कहरवा अद्धा हो जाता है साथ में पुरूष वर्ग लोग धुन गाता है। नृत्य की गति धीरे-धीरे तीव्र होती जाती है। राई में ढोलकिया की भी विशिष्ट भूमिका होती है। एक से अधिक छोलकिए भी नृत्य में हो सकते है। ढोलकिए नाचती हुई नर्तकी के साथ ढोलक की थाप पर उसके साथ आगे-पीछें बढ़ते हैं, बैठते हैं, चक्कर लगाते हैं। नृत्य चरम पर ढोलकिया दोनों हाथों के पंजों पर अपनी शरीर का पूरा बोझ सम्भाले हुए, टांगे आकाश की ओर कर, अर्द्धवाकार रेखा बनाकर आगे-पीछे चलता है। इस मुद्रा मे इसे बिच्छू कहा जाता है।
राई नृत्य में नर्तकी की मुख्य पोशाक-लहंगा और ओढ़नी होती है वस्त्र विभिन्न चमकदार रंगों के होते है। दोनों हाथों में रूमाल तथा पंावों में घूॅघरू होते हैं। पुरूष (वादक) बुन्देलखण्डी पगड़ी, सलूका और धोती पहनते हैं राई के मुख्य वाद्य ढोलक, डफला, झींका, मंजीरा, तथा रमतुला है। इस लोक नृत्यों को बचाने के लिए बुन्देलखण्ड में ही लोक संस्कृति केन्द्र की स्थापना जरूरी है। तभी बुन्देली लोक गीत नृत्य, तथा लोक वाद्य सुरक्षित और संरक्षित रह सकेगें।
Rai Dance -- Through the centuries Raai has been the folk dance which has touched its peak as a classical dance. Later, Raai degenerated its aesthetical value and lost its classical expression. Today it remains simply as a folk dance. Raai means a mustard seed. When a mustard seed is thrown into a saucer, the seed starts to swings around. This way mustard seed moves in the saucer, the dancers also swings and when the singers sing the lyrics of the song the dancers follow the beats with foot steps. It is a duet and the competition is between the beats of the drum and foot steps of the dancer. The drummer and the dancer try to win each other and this comp
Badhiya Dance --
Badhaiya is a ceremonial dance. It is performed on child birth, marriages or any other get together to celebrate happiness and joy. The collective moments of dancers show the unique expressions of their faces. With rhythm and movements they greet for the occasion
Ravala Dance --
Ravala dance in Bundelkhand is basically a dance drama. The farm labour community of Bundelkhand performs Ravala during marriages. It is performed with very funny expressions and humorous dialogues. The audiences are entertained by these expressions of dance and the dialogues of drama.
Divari Dance--
This dance in Bundelkhand is performed every year during the festival of light Diwali/Deepawali in the end of October or first week of November according to lunar calendar. In this connection the epic story goes that “in Gokul” when Lord Krishna raised Goverdhan Parvat on his finger to save the local people, they danced in joy. The dancers wear multi-coloured apparels and the chief dancer holds the peacock feathers in his hands and the rest stick those feathers in their half pants. The main instruments used in this dance are ‘Dholak’ and ‘Nagaria’ (both being a form of drums). The male dancers with long sticks show the marshal arts when the beats of drums inspire their energy and emotions. This dance is also performed as a ‘thanks giving’ after harvesting.
Pahunahi Dance
This song and dance is performed to welcome the guests in particular.
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