History of Bundelkhand - बुंदेलखंड का इतिहास

कहावत है – ‘‘चित्रकूट में रम रहे, रहिमन अवध नरेश जा पर विपदा परत है, सो आवत इही देश’’ 


भगवान राम अपने वनवास के समय अयोध्या से आकर चित्रकूट में रहे। यहा के कौल भील लोगों के सानिध्य में रहकर अनेक वर्ष चित्रकूट में विताये। बाद में कालिंजर, पदमावती, मालथौल, खिमलासा मालवा अंचल होते हुये दक्षिण के दंण्डकारण्य में पंचवटी गोदावरी के तट पर वर्तमान में नासिक में रहे थे। 





इसी समय सम्राट अशोक का प्रभाव क्षेत्र भी बुंदेलखंड (bundelkhand) रहा अशोक जो बौद्ध धर्म का अनुयायी था, जिसने सांची के स्तूप बनवाये विदिशा उसकी ससुराल थी, विदिशा क्षेत्र में तो संस्कृति और कला को काफी प्रोत्साहन मिला 





शुंग, कन्व सातवाहन राजाओं के समय विष्णुपुराण, वायुपुराण भागवतपुराणों का लेखन कार्य हुआ, जिनके दशवें और बारहवें स्कन्धों में इन राजाओं का वर्णन प्राप्त होता है। कुषाण राजा कनिष्क जो सूर्यदेव का उपासक था दतिया जिले के उन्नाव में प्राचीन सूर्यमंदिर स्थापित हुआ था वो नये परिवेश में आज भी है। पश्चिमी बुंदेलखंड (bundelkhand) में वालाटक ब्राहम्णों का शासन था जिनका मूल ठिकाना वेतवा के तट पर स्थित वाधाट जिला टीकमगढ़(tikamgarh) था। वे बड़े प्रतापी राजा थे। वाकाटकों का बनवाया हुआ मडखेडा में सूर्य मंदिर दर्शनीय है। वाकाटक, गुप्त और नाग राजा समकालीन थे। गुप्त सम्राट समुद्र गुप्त ने नागों की सत्ता को विखंटित कर स्वयं इस क्षेत्र को अपने आधीन कर लिया था। और वैष्ठव धर्म, संस्कृति का प्रचार किया था। बीना नदी के किनारे ऐरण में कुवेर नागा की पुत्री प्रभावती गुप्ता रहा करती थी जिसके समय काव्य, स्तंभ, वाराह और विष्णु की मूर्तिया दर्शनीय है। इसकी समय पन्ना नागौद क्षेत्र में उच्छकल्प जाति कें क्षत्रियों का शासन स्थापित हुआ था जबकि जबलपुर परिक्षेत्र में खपरिका सागर और जालौन क्षेत्र में दांगी राज्य बन गये थे। जिनकी राजधानी गड़पैरा थी दक्षिणी पश्चिमी झाँसी (Jhansi)–ग्वालियर के अमीर वर्ग के अहीरों की सत्ता थी तो धसान क्षेत्र के परिक्षेत्र में मांदेले प्रभावशाली हो गये थे। छटवीं शताब्दी में खजुराहों में जिजोतियां ब्राहम्ण राज्य स्थापित हो गया था.



प्राचीन काल में बुंदलेखंड(bundelkhand) तपस्वीयों की तपो भूमि थी। कालपी में व्यास ऋषि का आश्रम था। चित्रकूट कालिंजर के पास वाल्मिकि ऋषि रहते थे. कालांतर में यहा चेदी राजाओं का राज रहा जो चिदी वंश के थे। तत्पश्चात् नागों का राज्य रहा जिनकी राजधानी नागाभद्र नागौद थी। नागराजा शैव भक्त थे नाग राज्य कला, संस्कृति में उच्च कोटि का था। इनकी सत्ता सिंधु नदी के किनारे शिवपुरी क्षेत्र की थी। सिंधु के किनारे पर पवा इनकी दूसरी राजधानी थी। रामायण काल में यह क्षेत्र रामचंद्र जी के पुत्र कुश के आधीन था, जिसकी राजधानी कुशावती थी वर्तमान में कालिंजर के नदी के पश्चिमी किनारे लव पुरी थी जो रामचंद्र जी के ज्येष्ठ पुत्र लव के आधीन थी वर्तमान में लौढी महा भारत काल में इस क्षेत्र में कर्वी नगर करूषपुरी के नाम से विख्यात था जहा दलाकी–मलाकी राजाओं का राज्य था तो विराट नगरी भी इसी बुंदेलखंड (bundelkhand) में थी जिसे वर्तमान में राठ कहा जाता है। भगवान कृष्ण के मौसेरे भाई राजा शिशुपाल चंदेरी में राजा थे तो दंतवा के नाम से दतिया प्रसिद्ध था। सेवड़ा जो सिंधु नदी के तट पर है यहा ब्रम्हा के पुत्रों ने तपस्या की थी।




जिझौती शासन काल में बुंदेलखंड (bundelkhand) की जिझौती कहा जाता था। कालांतर में आठवीं सदी के पश्वात् चंदेल राज्य का आभिरभाव हुआ था जिसकी राजधानी महोवा महोत्सवपुरी थी। चंदेलों ने बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र को एक विकसित क्षेत्र के रूप में पहचान दी थी। उन्होने बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र में चंदेली तालाबों का निर्माण कराकर उनके किनारों पर बस्तिया बसाकर बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र को कृषि के क्षेत्र में अग्रसर किया था। उस समय धान, गन्ना, वनोजप और धी को पैदावार खूब होती थी। चंदेरी का एक पानुसाह सेठ अपने टाढे लेकर इस क्षेत्र में व्यापार करने आते थे तभी से जैन व्यवसायी भी इस क्षेत्र में भाये, क्षेत्र में गुड खूब बनाया जाता था। गन्ने की पिराई वाले पत्थर के काल आज भी गांव–गांव में जाने जाते है। चंदेल राजाओं ने मंदिर स्थापत्य कला, मूर्ति स्थापत्य कला, तालाब स्थापत्य कला पर काफी जोर दिया था। गांव–गांव के चंदेली तालाब और खजुराहों(khajuraho) के विश्व प्रसिद्ध मंदिर एवं अजयगढ़(ajaygarh) के महल चंदेल काल की कला के सर्वोच्च नमूने है जो विश्वप्रसिद्ध है।

सन् 1181–82 में पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल राज्य सत्ता पर आमण कर उसे वैरागढ़ उरई के मैदान में पराजित कर अस्तित्वहीन कर दिया था। पृथ्वीराज के चंदेलों की सामरिक महत्ता सांस्कृतिक वैभव को विखंटित कर दिया था। इस युद्ध में चंदेल राजा परमालेख के आल्हा–दल मलखान आदि सरदारों के साथ अन्य सभी सरदास वीरगति को प्राप्त हो गये थे। चंदेलों के बाद महोनी से बुंदेली राज सत्ता का आभिरभाव हुआ। महोनी जो जालौन जिले में पहुज नदी के किनारे बुंदेलों का ठिकाना था जहां का अधिपति सोहनपाल था। सोहनपाल को उसके भाइयों ने महोनी से खदेड दिया था। सोहनपाल महोनी छोड़ कर वेतवा के तटवर्तीय वन आच्छादित क्षेत्र में गडकुडार के समीप आया और बुंदेला, परमार, धंधेरे तीन वर्ग के क्षत्रियों का संगठन बनाकर कुठार के किले को खंगारों से छीनकर सन् 1257 में कुडार में अपनी सत्ता स्थापित कर दी थी।

1257 से 1539 ई. तक बुंदेलों की राजसत्ता कुडार में रही, तत्पश्चात् महाराजा रूद्र प्रताप ने बेतवा नदी के एक टापू पर ओर से छोर तक 1531 ई. में किले की आधारशिला रखी। क्योकि बेतवा के सूढा टापू के ओर से छोर तक किला बनने के बाद उसका नाम भी ओर छोर से ओरछा (orchha) पड़ गया था। ओरछा (orchha) का किला बड़ा महत्वपूर्ण रहा है। सधन वन के बीच से प्रवाहित बेतवा नदी जिसकी 2 धाराओं के मध्य टापू पर ओरछा (orchha) दुर्ग अजेय रहा है। जो सामरिक महत्व का अजेय किला रहा है। 





दुर्ग के रूप में यह वन दुर्ग, जल दुर्ग और गिरिदुर्ग का संयुक्त रूप से मिले जुले रूप का रहा है। राजा रूद्र प्रताप की मृत्यु 1531 ई. के पश्वात् उनके पुत्र भारतीचंद्र ने ओरछा (orchha) दुर्ग एवं नगर वसाहट को पूर्ण कराया और 1539 ई. में कुडार से राजधानी बदलकर ओरछा (orchha) बना ली थी। कालांतर में ओरछा (orchha) राज्य यमुना से नर्मदा तक एवं सिंधु से सतना तक अर्थात सम्पूर्ण बुंदेलखंड (bundelkhand) में फैला हुआ था। समय के साथ साथ ओरछा (orchha) राजवंश के राजकुमारों को जहा जो जागीरों दी गई थी वहा उन्होने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिये थे। इस प्रकार दतिया,चंदेरी,अजयगढ़,पन्ना,चरखाई,बांदा,विजावर,जैसे सभी राज्य ओरछा (orchha) राजवंश के फुटान रहे है। ओरछा (orchha) राजवंश का राजवंशीय वटवृक्ष अथवा रिश्तेदार संबंधियों के राज्य अथवा उनके सेनापति कामदारों के द्वारा स्थापित कर लिये राज्यों के निर्माताओं का संबंध किसी न किसी प्रकार से ओरछा (orchha) राजवंश से रहा है.



सन् 1729 ई. छत्रसाल बुंदेला पन्ना के मददगार बनकर मराठा पेशवा वाजीराव प्रथम पूना से जैतपुर आया था सहायता के उपलक्ष में छत्रसाल ने बुंदेलखंड (bundelkhand) का तीसरा भाग देने की शर्त पर सहायता प्राप्त की थी अस्तु बाजीराव पेशवा ने छत्रसाल की मृत्यु 1531 ई. के पश्चात् बलात बलपूर्वक बुंदेलखंड (bundelkhand) का तीसरा हिस्सा जो 36 लाख 5 हजार रूपये आय का था अपने आधीन कर लिया था चूंकि वाजीराव पेशवा पूना महाराष्ट में रहता था तथा बुंदेलखंड (bundelkhand) में उसके कर्मचारी मामल्ददार रहते थे। जो राजस्व वसूली कर पूना भेजते रहते थे चंूकि मराठे गैर क्षेत्रिय थे बुंदेलखंड (bundelkhand) क्षेत्र गैर क्षेत्रीय मराठों के लिये धन आपूर्ति का एक साधन था, मामल्ददार क्षेत्र की राजस्व वसूली के साथ–साथ बुंदेले ओरे देशी राजाओं, अन्य राजाओं से चौथ एवं सरदेशमुखी बसूलकर पेशवा भेजते रहते थे जो राज्य चौथ देने में आनाकानी करता था उसके राज्य और नगर को वे अपनी ताकारी–पिंडारी सेना द्वारा लूट लिया करते थे। गांबों, नगरों को भाग लगा देते थे। झाँसी (Jhansi) का किला जो ओरछा (orchha) राज्य के महाराणा वीरसिंह जू देव प्रथव का वनवाया हुआ था, मराठा मामन्ददार सरदार नारोंशंकर ने अपने कब्जे में कर ओरछा (orchha) के राजा पृथ्वीसिंह के समय ओरछा (orchha) नगर की खूब लूट मार की थी ओरछा (orchha) नगर के सभी लोगों को बलपूर्वक झाँसी (Jhansi) में बसाया था और ओरछा (orchha) को जनहीन कर दिया था मकानों में उसने आग लगा दी थी जब ओरछा (orchha) नगर निवासियों को नागोशंकर बलपूर्वक झाँसी (Jhansi)ले गया तो ओरछा (orchha) में भगवान रामराजा और किला महल आदि शेष रहे थे


महाराजा विमाजीत सिंह ने सन् 1783 ई. में ओरछा (orchha) से भागकर टेहरी टीकमगढ़(tikamgarh) को अपनी राजधानी बना ली थी। महाराजा विमजीत सिंह ने टेहरी पर पहाड़ी पर किला बनवाया। पहाड़ी के पश्चिमी तरफ राजधानी नगर का विस्तार कराया, क्योंकि वो भगवान कृष्ण के भक्त थे। श्री कृष्ण का एक नाम टीकमजी है, तो कृष्ण उफर् टीकमजी के नाम पर टेहरी के किले एवं नगर का नाम टीकमगढ़(tikamgarh) रखा। 1783 से 17 दिसम्बर 1947 तक अर्थात महाराजा विमजीत सिंह से महाराज वीरसिंह जू देव द्वितीय तक ओरछा (orchha) राज्य का संचालन कार्य टीकमगढ़(tikamgarh) राजधानी से हुआ। अंत में प्रजातांत्रिय शासन की मांग बुलंद हुई, जिस कारण 17 दिसम्बर 1947 की महाराजा वीरसिंह देव द्वितीय ने अपने ओरछा (orchha) राज्य सत्ता को जनता के हाथ सौपकर उत्तरदायी शासन दे दिया था और जनता को राजतंत्र से मुक्त कर दिया था

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