बुंदेलखंड के पकवान

महुआ और बेर बुंदेलखंड के लोगों का सबसे प्रिय भोजन है। ये दोनों वृक्ष इस जगह के लोकप्रिय वृक्ष हैं। यहाँ महुआ को मेवा, बेर को कलेवा (नास्ता) और गुलचुल का सबसे बढ़िया मिष्ठान माना जाता है, जैसा कि इस पंक्ति से स्पष्ट होता है

मउआ मेवा बेर कलेवा गुलचुल बड़ी मिठाई।
इतनी चीज़ें चाहो तो गुड़ाने करो सगाई।।


चिल्लाह तारा घाट, बुंदेलखंड- 1838
लटा मछुओं को भूनकर और उसके बाद कूट कर उनमें गरी, चिरौंजी आदि मेवा मिला कर छोटी- छोटी कुचैया की तरह बनाया जाता है, यह इस जगह का विशेष भोजन रहा है। यहाँ के लोग बाहर से आने वाले मेहमानों के लिए इसी भोजन को परोसते थे। यहाँ के लोगों की एक कहावत अधिक प्रचलित हैं कि खानें को मउआ, पैरबै में अमोआ इस बात का संकेत देती है कि स्थानीय लोगों में मउआ और अमोआ दोनों काफ़ी लोकप्रिय रहा है। भोजन के संबंध में अनेक लोक मान्यताएँ प्रचलित हैं:-

चैत मीठी चीमरी बैसाख मीठो मठा
जेठ मीठी डोबरी असाढ़ मीठे लठा।
सावन मीठी खीर- खँड़ यादों भुजें चना,
क्वाँर मीठी कोकरी ल्याब कोरी टोर के।
कातिक मीठी कूदई दही डारो मारे कों।
अगहन खाव जूनरी मुरी नीबू ज़ोर कें।
पूस मीठी खिचरी गुर डारो फोर कों।
मोंव मीठी मीठे पोड़ा बेर फागुन होरा बालें।
समै- समै की मीठी चीज़ें सुगर खबैया खावें।

बुंदेलखंडवासियों में हर मौसम में अलग भोजन खाने का प्रचलन था। ये लोग भोजन खाने में कभी- कभी काफ़ी सावधानी से काम लेते हैं। बुंदेलखंड के लोगों में बेर का बहुत ही विशेष महत्त्व था। यहाँ की एक कहावत है

मुखें बेर, अघाने पोंड़ा ये लोग भोजन खाने से पहले बेर ज़रूर खाते थे।

कनी उर भाला की अनी यहाँ के लोगों का मानना था कि कच्चे चावल की नोंक भाले की नोंक के बराबर हानिकारक होती है।

बुंदेलखंड के लोगों के भोजन का प्रभाव लोक संस्कृति पर दिखाई देता था। इसलिए वह लोग यह मानते थे कि जैसा भोजन किया जाएगा, वैसा ही मन होगा।

जैसो अनजल खाइये, तैसोई मन होये।
जैसो पानी पीजिए, तैसी बानी होय।।

यहां थोड़े से बुन्देलखण्ड के व्यंजनों का उल्लेख किया जा रहा है। आप देखेंगी कि ये बनाने में आसान हैं, सस्ते हैं, और खाने में अत्यन्त स्वादिष्ट हैं।

पूड़ी के लडडू:

ये लड्डू निर्धन परिवारों में बूंदी के लडूओं के स्थानापत्र कहे जा सकते हैं, पर स्वाद में उनसे भिन्न होते हैं। ये त्यौहारों पर या बुलावा (बुलउआ) के लिए बनाये जाते हैं। बेसन की बड़ी एवं मोटी पूड़ियां तेल में सेंककर हाथों से बारीक मीड़ी (मींजी) जाती है। फिर उन्हें चलनी से छानकर थोड़े से घी में भूना जाता है। उसके बाद शक्कर या गुड़ की घटना डाल कर हाथों से बांधा जाता है। शक्कर के लड्डू अधिक स्वादिष्ट बनते हैं, गुड़ के काम चलाऊ होते हैं। कहीं-कहीं पर स्वाद की वृद्धि करने के उद्देश्य से इनमें इलायची या काली मिर्च भी पीसकर मिला दी जाती है।



आँवरिया:

इसे आंवले की कढ़ी भी लोग कहते हैं। सूखे आंवलों की कलियों को घाी या तेल में भूनकर सिल पर पीसा जाता है। बेसन को पानी में घोलकर किसी बर्तन में चूल्हे पर चढ़ा देते हैं और उसी में आंवलों का यह चूर्ण डाल देते हैं। मिट्टी के बर्तन अर्थात हण्डी में अधिक स्वादिष्ट बनता है। लाल मिर्च, जीरा, प्याज एवं लहसुन आदि सामान्य मसाले पीसकर डाले जाते हैं। मसाले पीसकर डाले जाते हैं। मसाले के इस मिश्रण को तेल या धी में भूनकर बेसन को घोल छौंका जाये तो और अच्छा है। नमक अवश्य डाला जाता है।





हिंगोरा:


यह हींग से व्युत्पन्न हुआ है। मटटे के अभाव में बेसन का घोल थोड़ी सी हींग छौंककर पका लेते र्है। साधारण नमक डाल देते है। यह एक प्रकार की मट्ठाविहीन कढ़ी है। यह भी स्वादिष्ट पर भारी होता है।




थोपा:

यह शब्द ‘थोपने’, से बना है। बेसन को पानी में घोलकर कड़ाही में हलुवे की तरह पकाते हैं। उसमें नमक, मिर्च, लहसुन, जीरा एवं प्याज काटकर मिला देते है। जब हलुवा की तरह पककर कुछ गाढ़ा हो जाता है, तब जरा-सा तेल छोड़ देते है। पक जाने पर किसी थाली या हुर से पर तेल लगाकर हाथ से थोप देते हैं। बर्फी या हलुवे की तरह थोप दिये जाने पर छोटी-छोटी कतरी बना दी जाती है। इन्हें ऐसा ही खाया जाता है और मट्ठे में भी। मढ्ढे में डालकर रोटी से भी शाक (साग) की तरह खाते हैं। निर्धन परिवारों का यह नाश्ता भी है।



बफौरी:

यह शब्द ‘वाष्प’ से बना है। बुन्देली में ‘वाष्प’ को बाफ् और भाफ् (कहीं कहीं पर भापु) कहते है। मिट्टी या धातु के बर्तन में पानी भरकर उसके मंुह पर कोई साफ कपड़ा बांध देते है। उसे आग पर खौलाते हैं। जब वाष्प निकलने लगती हैं, तब उस पर बेसन की पकौड़ियां सेंकते हैं। इन पकौड़ियों को कड़ाही में लहसुन, प्याज, धनियां हल्दी एवं मिर्चीदि मसालों के मिश्रण को घी या तेल में छौंक कर पकाया जाता है। यह भी एक प्रकार का शाक है।




ठोंमर:

ज्वार को ओखली में मूसल से कूटकर दलिया बना लेते हैं। फिर इसे धातु या मिट्टी के बर्तन में चूल्हे पर दलिया की तरह मट्ठे में पकाते हैं। थोड़ा सा नमक भी डाल देते है। इसे सादा खाया जाता है। और दूध-गुड़ या दूध शक्कर से भी।



महेरी या महेइ:

यह भी ठोंमर की तरह बनती है। ज्वार का दलिया (पत्थर की चक्की से पिसा हुआ) मट्ठे में चुराया (पकाया) जाता है। जरा-सा नमक डाल देते है। यह मिट्टी के बर्तन में अधिक स्वादिष्ट बनती है। इसे भी सादा या दूध मीठे के साथ खाया जाता है। लोधी एवं अहीर जातियों का यह प्रिय भोजन है। जाड़े की रातों में यह अधिक बनायी जाती है और सुबह खायी जाती है। बासी महेरी अधिक स्वादिष्ट हो जाती है। अन्य मौसम में ताजी ही अच्छी रहती है।



मांडे:

ये मैदा से बनाये जाते हैं। इनके बनाने की विधि रोटी वाली ही है। अन्तर यह है कि रोटी लोहे के तवे पर सेंकी जाती है, जबकि मांड़े मिट्टी के तवों पर, जिन्हें कल्ले कहते हैं, बनाये जाते हैं। तवे कुम्भकार के यहां से बने हुए आते है। मांडे रोटी से आकार में बड़े होते है। इन्हें घी में डुबोया जाता है।




एरसे:

ये त्यौहारों विशेषकर होली या दीपावली, पर बनाये जाते है। ये मूसल से कूटे गए चावलों के आटे से बनाये जाते है। आटे में गुड़ मिला देते हैं और फिर पूड़ियों की तरह घी में पकाते हैं। घी के एरसे ही अधिक स्वादिष्ट होते है। तेल में अच्छे नहीं बनते ।



करार:

मूंग की दाल भिगोकर, उसके छिलके हटाकर एवं उसे पीसकर मट्ठे में घोला जाता है। इसके बाद इस घोल को मसालों के सहित बेसन की कढ़ी की तरह पकाते है। इसी प्रकार हरे चनों (छोले या निघोना) की कढ़ी बनायी जाती है।



फरा:

ये दो प्रकार के होते हैं। गेहूं के आटे को मांड़ कर या तो उसकी छोटी-छोटी रस्सियां बना ली जाती है या पूड़िया। फिर इन्हें खौलते हुए पानी में सेंका जाता है। निर्धन में व्रत के दिन पूडियों के स्थान पर इन्ही का व्यवहार किया जाता है। बड़े कानों के लिए यहां ‘फरा जैसे कान की’ उपमा दी जाती है।



अद्रैनी:

आधा गेहूं का आटा एवं आधा या आधे से कम बेसन मिलाकर जो नमकीन पूड़ी बनायी जाती है, उसे अद्रैनी कहते है। यह तेल या घी में बनती है। इसमें अजवायन का जीरा डाला जाता है। बड़ी स्वादिष्ट होती है।



रसखीर:

गन्ने के रस में पके हुए चावलों को ‘रसखीर’ कहते हैं। इस भोजन के लिए दूसरों को निमन्त्रित भी किया जाता है।




मसेला:

यह कोंहरियों की तरह मूंठा या रोसा की फलियों से दाने निकाल कर बनाया जाता है। इसमंे नमक एवं मिर्चादि मसाले मिलाये जाते है।




बेसन के आलू:

सूखे हुए आंवलों को घी या तेल मंे भून कर और पत्थर पर पीसकर बेसन में मिलाते है। और उस मिश्रण से आलू के समान छोटे-छोटे लड्ड़ू बना लेते है। इन्हें खौलते पानी मंे पकाते है। फिर चाकू से छोटे-छोटे काटकर तेल या घी में भूनते हैं। इसके बाद मसालों के साथ छौंक कर कड़ाही या पतीली में बनाते हैं। ये मांस से भी अधिक स्वादिष्ट बनते है।


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