कालिंजर के किले का रहस्‍य





इतिहास के उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्ष गवाह बांदा जनपद का कालिंजर किला हर युग में विद्यमान रहा है। इस किले के नाम जरुर बदलते गये हैं। सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर के नाम से ख्याति पायी है।कालिंजर का अपराजेय किला प्राचीन काल में जेजाक भुक्ति साम्राज्य के अधीन था। जब चंदेल शासक आये तो इस पर मुगल शासक महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायूं ने आक्रमण कर इसे जीतना चाहा पर कामयाब नहीं हो पाये। अंत में अकबर ने १५६९  में यह किला जीतकर बीरबल को उपहार स्वरूप दे दिया। बीरबल के बाद यह किला बुंदेले राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। इनके बाद किले पर पन्ना के हरदेव शाह का कब्जा हो गया। १८१२  में यह किला अंग्रेजों के अधीन हो गया।

इस दुर्ग के निर्माण का नाम तो ठीक-ठीक साक्ष्य कहीं नहीं मिलता पर जनश्रुति के मुताबिक चंदेल वंश के संस्थापक चंद्र वर्मा द्वारा इसका निर्माण कराया गया। कतिपय इतिहासकारों के मुताबिक इस दुर्ग का निर्माण केदार वर्मन द्वारा ईसा की दूसरी से सातवीं शताब्दी के मध्य कराया गया था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इसके द्वारों का निर्माण मुगल शासक औरंगजेब ने करवाया था। कालिंजर दुर्ग में प्रवेश के लिए सात द्वार थे। इनमें आलमगीर दरवाजा, गणेश द्वार, चौबुरजी दरवाजा, बुद्धभद्र दरवाजा, हनुमान द्वार, लाल दरवाजा और बारा दरवाजा थे। अब हालत यह है कि समय के साथ सब कुछ बदलता गया। दुर्ग में प्रवेश के लिए तीन द्वार कामता द्वार, रीवां द्वार व पन्नाद्वार है। पन्नाद्वार इस समय बंद है।


छठी शताब्दी और आज  २०१७ ...करीब पंद्रह सौ साल का वक़्त गुजर चुका है. इतने लंबे अरसे में तो यादों पर भी वक़्त की गर्द चढ़ जाती है. पर यहां जिस राज़ की बात की जा रही है, वो पंद्रह सौ साल बाद भी जिंदा है.
एक किला, जो पहाड़ों पर सीना ताने खड़ा है, इस किले में रहस्य है. सन्नाटे को चीरती घुंघरुओं की चीख़ है, तो कहीं तिलिस्मी चमत्कार. कई ख़ौफ़नाक हवेलियों और किले के क़िस्से अब तक सुने गए हैं. ऐसी कोई भी हवेली या किला नहीं था, जहां कोई रहता हो, इसलिए दास्तान कितनी सच है, कितनी झूठ, ये शक़ हमेशा बना रहता था. मगर इस किले में 'वो' रहती है और साथ में रहती है उसकी घुंघरुओं का आवाज़. जी हां...'वो', जिसे मरे १५००  साल बीत चुके हैं.

कभी किसी महल जैसा रहा शानदार किला आज खंडहर में तब्दील हो गया है. मगर यहां की ज़िंदगी यहां के क़िरदारों के साथ आज भी ज़िंदा नज़र आती है. यहां के वीराने आज भी किसी के जिंदा होने का अहसास कराते हैं और जब दिन थककर सो जाता है, तो यहां रात की तनहाई अक्सर घुंघरुओं की छनकती आवाजों से टूट जाती है.

कालिंजर के इस दुर्ग में काली गुफाओं के कई रहस्यमई तिलिस्म हैं. रात होते ही इन गुफाओं में एक अजीब हलचल होती है. दिन के वक्त ये किला जितना खामोश नज़र आता है, रात के वक्त उतना ही खौफनाक. किले की ८०० फुट की ऊंचाई पर पानी की धार नीचे से ऊपर की ओर बहती है.

बांदा में ज़मीन से 800 फुट ऊंची पहाड़ियों पर बना है कालिंजर का किला. कालिंजर दुर्ग को किसी ने चमत्कार कहा तो किसी ने अनोखा तिल्सिम करार दिया.

कालिंजर किले में दाखिल होते ही कई रहस्यमयी छोटी बड़ी गुफाएं दिखाई देती हैं  वो गुफाएं जिसका ओर तो है, लेकिन छोर का पता ही नहीं चलता. यानी गुफाएं शुरू तो होती हैं, लेकिन खत्म कहां जाकर होती हैं, यह कोई नहीं जानता.

गुफाओं में जगह जगह मकड़ी के जाले और घूरती बिल्लियों की निगाहे रोंगटे खड़े देती हैं, लेकिन इन सबके बावजूद खामोशी बिखरी पड़ी है चारों ओर

इन अंधेरी गुफाओं के बीच ये टप टप गिरता पानी हमारे जिस्म में सिहरन पैदा कर देता है . इन अंधेरी गुफाओं में चमगादड़ों ने अपना आशियाना बना रखा है. आगे की जगह को पातालगंगा कहते है.

इस किले में एक दो नहीं बल्कि कई तरह की गुफाए बनी हुई हैं, जिनका इस्तेमाल उस काल में सीमाओं की हिफाजत के लिए होता था. किले के पश्चमी छोर पर ही एक और रहस्मयी गुफा थी. इस गुफा में घना अंधेरा रहता है  और इसके अंदर अजीब तरह की आवाजें आती रहती हैं

कालिंजर के रहस्मयी किले में सात दरवाजे है. इन सात दरवाजों में एक दरवाजा ऐसा है, जो सिर्फ रात के सन्नाटे में खुलता है और यहां से निकला एक रास्ता रानीमहल ले जाता है जहां रात की खामोशी को घुंघरुओं की आवाज़ें तोड़ देती हैं और इन्ही घुंघरुओं की आवाज़ सुनने के लिए अब हमें शाम ढलने का का इंतज़ार करना पड़ता है

दरअसल कालिंजर किले में मौजूद रानी महल है. एक दौर था जब इस महल में हर रात महफिलें सजा करती थीं. कहने वाले कहते हैं कि आज १५००  साल बाद भी शाम ढलते ही एक नर्तकी के कदम यहां उसी तरह थिरकने लगते हैं. बस फर्क यह है कि अब इन घुंघरुओं की आवाज दिल बहलाती नहीं बल्कि दिल दहला जाती है.

घुंघरू की आवाज उस नर्तकी की है जिसका नाम पद्मावती था. गज़ब की खूबसूरत इस नर्तकी की जो भी एक झलक देख लेता वही उसका दीवाना बन बैठता. कहते हैं जब उसके घुंघरू से संगीत बहता तो चंदेल राजा उसमें बंधकर रह जाते. पद्मावती भगवान शिव की भक्त थी. लिहाजा खासकर कार्तिक पूर्णिमा के दिन वो पूरी रात दिल खोल कर नाचती थी.

पद़माती अब नहीं है, पर हैरानी की बात ये है कि हज़ारों साल बाद आज भी ये किला पद्मावती के घुघरुओं की आवाज़ से आबाद है. खुद इतिहासकार भी इस सच को मानते हैं. रिसर्च के दौरान एक बार उन्हें देर रात इस महल में रुकना पड़ा और फिर रात की खामोशी में अचानक उन्हें वही घुंघरुओं की आवाज सुनाई देने लगी.

हजारों साल पुराने इस किले का इतिहास कुछ ऐसा है कि लोग फिर भी इन वीरान खंड्हरों की ओर खिंचे चले आते हैं. ये किला दरअसल चंदेल साम्रज्य की मिलकियत हुआ करता था. मगर किले के इतिहास से अलग लोगों को ज्यादा दिलचस्पी है किले में छुपे खजाने से. इस किले ने अब तक जितनी भी लड़ाइयां झेली वो सब खजाने को लेकर ही हुईं. अफवाहें हैं कि कालिंजर के किले में हीरे-जवाहरातों का एक बड़ा जखीरा मौजूद है.

पहाडी़ पर मौजूद इस किले में चित्रकारी और पत्थरों पर हुई नक्काशी देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस किले में काफी धन दौलत रही होगी. ऐतिहासिक सबूत बताते हैं कि कालिंजर के किला पर छठी शताब्दी से लेकर १५वी शताब्दी तक चंदेलों का शासन रहा. इस किले को गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायूं ने इनसे जीतना चाहा, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए.

इस चमत्कारी किले को इतिहास के हर युग में अलग अलग नाम से जाना गया, जिसका बाकायदा हिन्दू ग्रन्थों में जिक्र भी किया गया है. दरअसल कालिंजर का मतलब होता है काल को जर्जर करने वाला.




यहां के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। मंदिर में १८  भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा शिवलिंग नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गयीं हैं।



रोमांच और चमत्कार से हटकर कालिंजर का पौराणिक महत्व शिव के विषपान से भी है. समुद्र मंथन में मिले कालकूट के पान के बाद शिव ने इसी कालिंजर में विश्राम करके काल की गति को मात दी थी, इसलिए इस जगह का नाम कालिंजर पड़ा.शिवलिंग की खासियत यह है कि उससे पानी रिसता रहता है। इसके अलावा सीता सेज, पाताल गंगा, पांडव कुंड, बुढ्डा-बुढ्डी ताल, भगवान सेज, भैरव कुंड, मृगधार, कोटितीर्थ व बलखंडेश्वर, चौबे महल, जुझौतिया बस्ती, शाही मस्जिद, मूर्ति संग्रहालय, वाऊचोप मकबरा, रामकटोरा ताल, भरचाचर, मजार ताल, राठौर महल, रनिवास, ठा. मतोला सिंह संग्रहालय, बेलाताल, सगरा बांध, शेरशाह शूरी का मकबरा हुमायूं की छावनी आदि हैं।


नीलकंठ मंदिर के ऊपर ही पहाड़ के अंदर एक और कुंड है, जिससे स्वर्गा कहा जाता है. इसे भी धर्म से जोड़ा जाता है. पहाड़ों पर सीना ताने खड़े इस कालिंजर के किले में कहीं रहस्य है, तो कही घुंघरुओं का खौफ़. कहीं तिलिस्मी चमत्कार है, तो कहीं अंधेरी गुफाओं का रोमांच. यह ही वजह है कि कला औऱ शिल्प की अदभुत मिसाल अभी तक बाइज़्ज़त कायम हैं. रही बात ख़ौफ़ की, तो इस किले की ख़ूबसूरती की रोशनी में ख़ौफ़ का साया भी धुंधला पड़ता ही नज़र आता है.

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