कालिंजर का किला



कालिंजर का उल्लेख अनेक युगों से होता आया है। इसका वर्णन व उल्लेख करने वाले कुछ ग्रन्थ इस प्रकार से हैं:
  • ऋगवेद में इसके वर्णन के अनुसार इसे चेदिदेश का अंग माना गया था।
यथा चिच्चैद्यः कशुः शतमुष्ट्रानां ददत्सहस्रा दश गोनाम् ॥३७॥
यो मे हिरण्यसंदृशो दश राज्ञो अमंहत ।अधस्पदा इच्चैद्यस्य कृष्टयश्चर्मम्ना अभितो जनाः ॥३८॥
माकिरेना पथा गाद्येनेमे यन्ति चेदयः ।अन्यो नेत्सूरिरोहते भूरिदावत्तरो जनः ॥३९॥
ऋगवेद सूक्तं ८.५

  • विष्णु पुराण में इसका परिक्षेत्र विन्ध्याचल पर्वत श्रेणियों के अन्तर्गत्त माना गया है:
महेन्द्रो मलयः सह्यः शुक्तिमानृक्षपर्वतः॥
विन्ध्यश्च पारियात्रश्च सप्तात्र कुलपर्वताः ॥
विष्णु पुराण, भाग-२, ३२९

  • गरुड़ पुराण में कालिंजर के महत्त्व को स्वीकारते हुए इसे महातीर्थ एवं परमतीर्थ की संज्ञा दी गई है।
गौवर्णं परमं तीर्थ, तीर्थ माहिष्मती पुरी॥
कालंजर महातीर्थ, शुक्रतीर्थ मनुत्तमम्॥

तथा सम्पूर्ण प्रकार के पापों से मुक्त कर मोक्ष दिलाने वाला बताया गया है:
कृते शोचे मुक्तिदश्च शांर्ग्ङ्गधारीतन्दिके॥
विरजं सर्वदं तीर्थ स्वर्णाक्षंतीर्थमुतमम्॥

  • वायु पुराण के अनुसार विषपान पश्चात भगवान शिव का कण्ठ नीला पड़ गया और काल को भस्म करने के कारण यहाँ का नाम कालिंजर पड़ गया।
तत्र कालं जरिष्यामि तथा गिरिवरोत्तमे॥
तेन कालंजरो नाम भविष्यति स पर्वतः॥
वायु पुराण, अ-२३, १०४

वायु पुराण में ही कहा गया है कि जो व्यक्ति कालन्जर में श्राद्ध करता है, उसे पुण्य लाभ होता है।:
कालन्जरे दशार्णायं नैमिषै कुरुजांगले॥
वाराणस्या तु नगर्या तुदेयं तु यन्ततः॥
वायु पुराण, ७७, ९३

  • कूर्म पुराण में शिव जी के यहाँ काल को जीर्ण करने का उल्लेख है, इसलिये भविष्य में इसका नाम कालंजर होगा।:
काले महेश निहते लोकनाथः पितामहः। अचायत वरं रुद्रम सजीवो यं भवित्वति॥
इत्थेतत्परम तीर्थ कालंजर मितिशृतम। गत्वाम्यार्च्य महादेवं गाआणपत्यं स विन्द्यति॥
कूर्म पुराण, ३६, ३५-३८

  • वामन पुराण में कालिंजर को नीलकण्ठ का निवास स्थल माना गया है:
कालन्जरे नीलकण्ठं सरश्वामनुत्तम॥
हंसयुक्तं महाकोश्यां सर्वपाप प्रणाशनम॥
वामन पुराण, ९०,२७

  • वाल्मीकि रामायण के अनुसार रामचन्द्र जी ने एक कुत्ते के कहने पर ब्राह्मण को कालिंजर का कुलपति नियुक्त किया।
कालन्जरे महाराज कौलपत्य प्रतीप्ताम॥
एतत्छुत्वा तुरामेण कालेपत्यं भिषेचितः॥
वाल्मीकि रामायण, उत्तर काण्ड, प्रशिप्तः सर्गः ७,२,३९

  • महाभारत में वेद व्यास ने इस क्षेत्र को वेदों का ही अंश माना है, व कहा है कि इसकी सीमाएं कुरु, पांचाल, मत्स्य, दशार्ण, आदि से जुड़ी हुई हैं।
सन्ति रम्याजनपदा वहवन्ना: पारितः कुरुन। पांचालश्च-चेदि-मत्स्याश्च शूरसेनाः पटच्चरा॥११॥
दशार्णा: नवराष्ट्रश्च मल्लः सात्वा, युगन्धराः। कुन्ति राष्ट्र सुविस्तीर्ण सुराष्ट्रावन्त्यस्तथा॥
महाभारत, १,६३,२,५८,४,११-१२



कालिञ्जर अर्थात समय का विनाशक – काल: अर्थात समय, एवं जय : अर्थात विनाश। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार सागर मन्थन उपरान्त भगवान शिव ने सागर से उत्पन्न हलाहल विष का पान कर लिया था एवं अपने कण्ठ में ही रोक लिया था, जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया था, अतः वे नीलकण्ठ कहलाये।तब वे कालन्जर आये व यहाँ काल पर विजय प्राप्त की। इसी कारण से कालिन्जर स्थित शिव मन्दिर को नीलकंठ भी कहते हैं।तभी से इस पहाड़ी को ही पवित्र तीर्थ माना जाता है।

पद्म पुराण में इस क्षेत्र को नवऊखल यानि सात पवित्र स्थलों में से एक बताया गया है।इसे विश्व का सबसे प्राचीन स्थल बताया गया है। मत्स्य पुराण में इस क्षेत्र को अवन्तिका एवं अमरकंटक के साथ अविमुक्त क्षेत्र कहा गया है। जैन धर्म के ग्रंथों तथा बौद्ध धर्म की जातक कथाओं में इसे कालगिरि कहा गया है। कालिंजर तीर्थ की महिमा ब्रह्म पुराण (अ.६३) में भी वर्णित है।इस घाटी क्षेत्र को घने वन तथा घास के खुले मैदान, दोनों ही घेरे हुए हैं। यहाँ का प्राकृतिक वैभव इस स्थान को तप करने व ध्यान लगाने जैसे आध्यात्मिक कार्यों के लिये एक आदर्श स्थान बनाता है।


कालिन्जर शब्द (कालञ्जर) प्राचीन पौराणिक हिन्दू ग्रन्थों में उल्लेख तो पाता है, किन्तु इस किले का सही सही उद्गम स्रोत अभी अज्ञात ही है, किन्तु जनश्रुतियों के अनुसार इसकी स्थापना चन्देल वंश के संस्थापक चंद्र वर्मा ने की थी वहीं कुछ इतिहासवेत्ताओं का मानना है कि इसकी स्थापना केदारवर्मन द्बारा द्वितीय-चौथी शताब्दी में करवायी गई थी। एक अन्य मान्यता अनुसार औरंगज़ेब ने इसके कुछ द्वारों का निर्माण कराया था। हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार इस स्थान का नाम सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर के नाम से विख्यात रहा है।

१६वीं शताब्दी के फारसी इतिहासवेत्ता फिरिश्ता के अनुसार, कालिन्जर नामक शहर की स्थापना किसी केदार राजा ने ७वीं शताब्दी में की थी। उसमें यह दुर्ग चन्देल शासन से प्रकाश में आया। चन्देल-काल की कथाओं के अनुसार दुर्ग का निर्माण एक चन्देल राजा ने करवाया था।चन्देल शासकों द्वारा कालिन्जराधिपति ("कालिन्जर के अधिपति ") की उपाधि का प्रयोग उनके द्वारा इस दुर्ग को दिये गए महत्त्व को दर्शाता है।

कालिञ्जर, उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बांदा जिले में कलिंजर नगरी में स्थित एक पौराणिक सन्दर्भ वाला, ऐतिहासिक दुर्ग है जो इतिहास में सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन मन्दिर नगरी-खजुराहो के निकट ही स्थित है। कलिंजर नगरी का मुख्य महत्त्व विन्ध्य पर्वतमाला के पूर्वी छोर पर इसी नाम के पर्वत पर स्थित इसी नाम के दुर्ग के कारण भी है। यहाँ का दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय किलों में एक माना जाता है।


इस पर्वत को हिन्दू धर्म के लोग अत्यंत पवित्र मानते हैं, व भगवान शिव के भक्त यहाँ के मन्दिर में बड़ी संख्या में आते हैं। प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था। इसके बाद यह दुर्ग यहाँ के कई राजवंशों जैसे चन्देल राजपूतों के अधीन १०वीं शताब्दी तक, तदोपरांत रीवा के सोलंकियों के अधीन रहा। इन राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू जैसे प्रसिद्ध आक्रांताओं ने आक्रमण किए लेकिन इस पर विजय पाने में असफल रहे।

अनेक प्रयासों के बाद भी आरम्भिक मुगल बादशाह भी कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए। अन्तत: मुगल बादशाह अकबर ने इसे जीता व मुगलों से होते हुए यह राजा छत्रसाल के हाथों अन्ततः अंग्रेज़ों के अधीन आ गया। इस दुर्ग में कई प्राचीन मन्दिर हैं, जिनमें से कई तो गुप्त वंश के तृतीय -५वीं शताब्दी तक के ज्ञात हुए हैं। यहाँ शिल्पकला के बहुत से अद्भुत उदाहरण हैं।




इस दुर्ग की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ढेरों युद्धों एवं आक्रमणों से भरी पड़ी है। विभिन्न राजवंशों के हिन्दू राजाओं तथा मुस्लिम शासकों द्वारा इस दुर्ग पर वर्चस्व प्राप्त करने हेतु बड़े-बड़े आक्रमण हुए हैं, एवं इसी कारण से यह दुर्ग एक शासक से दूसरे के हाथों में चलता चला गया। किन्तु केवल चन्देल शासकों के अलावा,कोई भी राजा इस पर लम्बा शासन नहीं कर पाया।
सतयुग में कालिंजर चेदि नरेश राजा उपरिचरि बसु के अधीन रहा व इसकी राजधानी सूक्तिमति नगरी थी।त्रेता युग में यह कौशल राज्य के अन्तर्गत्त आ गया। वाल्मीकि रामायण के अनुसार तब कोसल नरेश राम ने इसे किन्ही कारणों से भरवंशीय ब्राह्मणों को दे दिया था। द्वापर युग में यह पुनः चेदि वंश के अधीन आ गया एवं तब इसका राजा शिशुपाल था। उसके बाद यह मध्य भारत के राजा विराट के अधीन आया। कलियुग में कालिंजर के किले पर सर्वप्रथम उल्लिखित नाम दुष्यंत- शकुंतला के पुत्र भरत का है।



इतिहासकार कर्नल टॉड के अनुसार उसने चार किले बनवाए थे जिसमें कालिंजर का सर्वाधिक महत्त्व है। तदोपरांत महात्मा बुद्ध (५६३-४८० ई.पू.) के समय यहाँ चेदि वंश का आधिपत्य रहा। महात्मा बुद्ध की यात्रा के वर्णन में उनके कालिंजर आने का भी उल्लेख है। इसके बाद यह मौर्य साम्राज्य के अधीन आ गया व विंध्य-आटवीं नाम से विख्यात हुआ। तत्पश्चात शुंग वंश तथा कुछ वर्ष पाण्डुवंशियों का आधिपत्य रहा। समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति में इस क्षेत्र का विन्ध्य आटवीं नाम से उल्लेख है। इनके बाद यह वर्धन साम्राज्य के अधीन भी रहा।

गुर्जर प्रतिहारों के शासन में यह उनके अधिकार में आया एवं नागभट्ट द्वितीय के समय तक रहा। तब चन्देल शासक उनहीं के माण्डलिक राजा हुआ करते थे। तब के लगभग हरेक ग्रन्थ या अभिलेखों में कालिन्जर का उल्लेख मिलता है।२४९ ई. में यहाँ हैहय वंशी कृष्णराज का शासन था, एवं चतुर्थ शताब्दी में नागों का अधिकार हुआ, जिन्होंने यहाँ नीलकंठ महादेव का मन्दिर बनवाया। तत्पश्चात सत्ता गुप्त वंश को हस्तांतरित हुई।प्राचीन काल में यह जेजाकभुक्ति (जयशक्ति चन्देल) साम्राज्य के अधीन था।

९वीं से १५वीं शताब्दी तक यहाँ चन्देल शासकों का शासन था। चन्देल राजाओं के शासनकाल में कालिंजर पर महमूद गजनवी, कुतुबुद्दीन ऐबक, शेर शाह सूरी और हुमांयू ने आक्रमण किए लेकिन जीतने में असफल रहे।[9][3] १०२३ में महमूद गज़नवी ने कालिंजर पर आक्रमण कर यहाँ से लूट का माल ले गया था, किन्तु किले पर अधिकार नहीं किया था। इसके बाद अनेक प्रयासों के बाद भी आरम्भिक मुगल कालिंजर के किले को जीत नहीं पाए।



मुगल आक्रांता बाबर इतिहास में एकमात्र ऐसा सेनाधिपति रहा, जिसने १५२६ में राजा हसन खां मेवातपति से वापस जाते हुए दुर्ग पर आधिपत्य प्राप्त किया किन्तु वह भी उसे रख नहीं पाया। शेरशाह सूरी महान योद्धा था, किन्तु इस दुर्ग का अधिकार वह भी प्राप्त नहीं पर पाया। इसी दुर्ग के अधिकार हेतु चन्देलों से युद्ध करते हुए २२ मई १५४५ में उसकी उक्का नामक आग्नेयास्त्र(तोप) से निकले गोले के दुर्ग की दीवार से टकराकर वापस सूरी पर गिरकर फटने से उसकी मृत्यु हुई थी। अन्तत: बड़े संघर्ष एवं प्रयास के बाद १५६९ में अकबर ने यह दुर्ग जीता और अपने नवरत्नों में एक बीरबल को उपहारस्वरूप प्रदान किया।



बाबर एवं अकबर, आदि के द्वारा किये गए प्रयत्नों के विवरण बाबरनामा, आइने अकबरी, आदि ग्रन्थों में मिलते हैं।बीरबल के बाद यह दुर्ग बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। छत्रसाल के बाद इस किले पर पन्ना के शासक हरदेव शाह ने अधिकार कर लिया। १८१२ ई. में यह दुर्ग अंग्रेजों के नियंत्रण में आ गया।१८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी कालिंजर दुर्ग की प्रधान भूमिका रही थी। तब इस पर एक छोटी ब्रिटिश टुकड़ी का अधिकार था। १८१२ ई. में ब्रिटिश टुकड़ियां बुन्देलखण्ड पहुंचीं। काफ़ी संघर्ष के उपरान्त उन्हें दुर्ग पर अधिकार मिला। कालिंजर दुर्ग पर ब्रिटिश शासन की अधीनता इसके लिये एक महत्त्वपूर्ण घटना सिद्ध हुई।

पुराने अभिजात वर्ग के हाथों से निकल कर अब यह नये नौकरशाहों के हाथों में आ गया था, जिन लोगों ने ब्रिटिश प्रशासन को अपनी स्वामिभक्ति के प्रदर्शन करने हेतु इस दुर्ग के कई भागों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। दुर्ग को पहुंचाये गए नुक्सान के चिह्न अभी भी इसकी दीवारों एवं अन्दर के खुले प्रांगण में देखे जा सकते हैं।

दुर्ग एवं इसके नीचे तलहटी में बसा कस्बा, दोनों ही इतिहासकारों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहाँ मन्दिरों के अवशेष, मूर्तियां, शिलालेख एवं गुफ़ाएं, आदि सभी उनके रुचि के साधन हैं। कालिंजर दुर्ग में कोटि तीर्थ के निकट लगभग २० हजार वर्ष पुरानी शंख लिपि स्थित है जिसमें रामायण काल में वनवास के समय भगवान राम के कालिंजर आगमन का भी उल्लेख किया गया है।

इसके अनुसार श्रीराम, सीता कुंड के पास सीता सेज में ठहरे थे। कालिंजर शोध संस्थान के तत्कालीन निदेशक अरविंद छिरौलिया के कथनानुसार इस दुर्ग का विवरण अनेक हिन्दु पौराणिक ग्रन्थों जैसे पद्म पुराण व वाल्मीकि रामायण में भी मिलता है। इसके अलावा बुड्ढा-बुड्ढी सरोवर व नीलकंठ मंदिर में नौवीं शताब्दी की पांडुलिपियां संचित हैं, जिनमें चंदेल-वंश कालीन समय का वर्णन मिलता है। दुर्ग के प्रथम द्वार में १६वीं शताब्दी में औरंगजेब द्वारा लिखवाई गई प्रशस्ति की लिपि भी है।

दुर्ग के समीपस्थ ही काफिर घाटी है। इसमें शेरशाह सूरी के भतीजे इस्लाम शाह की १५४५ई० में लगवायी गई प्रशस्ति भी यहाँ उपस्थित है। इस्लाम शाह ने अपना दिल्ली पर राजतिलक होने के बाद यहाँ के कोटि तीर्थ में बने मन्दिरों को तुड़वाकर उनके सुन्दर नक्काशीदार स्तंभों का प्रयोग यहाँ बनी मस्जिद में किया था। इसी मस्जिद के बगल में एक चबूतरा (ख़ुतबा) बनवाया था, जिसपर बैठकर उसने ये शाही फ़रमान सुनाया था, कि अब से कालिन्जर कोई तीर्थ नहीं रहेगा, एवं मूर्ति-पूजा को हमेशा के लिये निषेध कर दिया था। इसका नाम भी बदल कर शेरशाह की याद में शेरकोह (अर्थात शेर का पर्वत) कर दिया था।

बी डी गुप्ता के अनुसार कालिंजर के यशस्वी राजा व रानी दुर्गावती के पिता कीर्तिवर्मन सहित उनके ७२ सहयोगियों की हत्या भी उसी ने करवायी थी।[3] दुर्ग में ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्त्व के ढेरों शिलालेख जगह-जगह मिलते हैं, जिनमें से अनेक लेख हजारों वर्ष पूर्व अति प्राचीन काल के भी हैं

कालिंजर दुर्ग विंध्याचल की पहाड़ी पर ७०० फीट की ऊंचाई पर स्थित है। दुर्ग की कुल ऊंचाई १०८ फ़ीट है। इसकी दीवारें चौड़ी और ऊंची हैं। इनकी तुलना चीन की दीवार से की जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। कालिंजर दुर्ग को मध्यकालीन भारत का सर्वोत्तम दुर्ग माना जाता था। इस दुर्ग में स्थापत्य की कई शैलियाँ दिखाई देती हैं, जैसे गुप्त शैली, प्रतिहार शैली, पंचायतन नागर शैली, आदि।प्रतीत होता है कि इसकी संरचना में वास्तुकार ने अग्नि पुराण, बृहद संहिता तथा अन्य वास्तु ग्रन्थों के अनुसार की है।

किले के बीचों-बीच अजय पलका नामक एक झील है जिसके आसपास कई प्राचीन काल के निर्मित मंदिर हैं। यहाँ ऐसे तीन मंदिर हैं जिन्हें अंकगणितीय विधि से बनाया गया है। दुर्ग में प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं और ये सभी दरवाजे में एक दूसरे से भिन्न शैलियों से अलंकृत हैं। यहाँ के स्तंभों एवं दीवारों में कई प्रतिलिपियां बनी हुई हैं, जिनमें मान्यता के अनुसार यहाँ के छुपे हुए खजाने की जगह का रहस्य भी छुपा हुआ है।

इसका उल्लेख करते कुछ मध्यकालीन ग्रन्थ इस प्रकार से हैं: चन्देल काल के अनेक विद्वानों ने इसका वर्णन अनेक ग्रन्थों में किया है, जिनमेम से कुछ प्रमुख हैं: प्रबोध चन्द्रोदय, रूपकषटकम, आल्हखण्ड, आदि।
पृथ्वीराज चौहान के राजकवि चन्दबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में कालिंजर की प्रशंसा की है। मध्य काल (१६वीं शताब्दी) में यह सुल्तानों के अधीन हो गया। तब की लिखी पुस्तकों में भी इसका उल्लेख मिलता रहा है।
मुगल काल में इसका उल्लेख बाबरनामा एवं आइने अकबरी में आता है। बाद में बुन्देलों के अधिकार में रहा। लाल कवि विरचित छत्रप्रकाश में इसका वर्णन आता है।

यहाँ की भूमि पर बैठकर ही अनेक ऋषियों-मुनियों ने वेदों की ऋचाओं का सृजन किया था। यहीं नारद संहिता, बृहस्पति सूत्र, आदि की रचना हुई। आदि कवि वाल्मीकि ने यहीं वाल्मीकि रामायण का सृजन किया व महाकवि व्यास ने वेदों की रचना, तथा कालांतर में गोस्वामी तुलसीदास ने भी निकट ही रामचरितमानस की रचना भी यहीं की थी।

जगनिक ने आल्हखण्ड ग्रंथ का सृजन किया, चन्देल नरेश गण्ड ने अनेक काव्यों का भावनात्मक सृजन यहीं किया, जिनके द्वारा महमूद गजनवी भी मित्र रूप में परिवर्तित हो गया। महान कवि पद्माकर यहीं थे, व संस्कृत ग्रन्थ प्रबोधचन्द्रोदय के रचयिता भी यहीं हुए थे। कालीदास व बाणभट्ट जैसे साहित्यकार विन्ध्य आटवीं से प्रभावित होकर यहाँ का वर्णन अपने ग्रन्थों में करते रहे। बुन्देलखण्ड के कवि घासीराम व्यास, कृष्णदास ने भी यहाँ के भावनात्मक एवं कलात्मक वर्णन किये हैं।
महाराज छत्रसाल व भी उत्तम कोटि के कवि रहे हैं। उन्होंने व सुप्रसिद्ध लालकवि ने भी यहाँ के उल्लेख अपनी कविताओं के माध्यम से किये हैं। महाकवि भूषण ने इस क्षेत्र का उल्लेख किया है। तत्कालीन सोलंकी राजा ने ही उन्हें भूषण की पद्वी से विभूषित किया था। लिखते हैं:


“दुज कन्नौज कुल कश्यपी, रत्नाकर सुतधीर। बसत त्रिविक्रमपुर सदा, तरनि तनुजा तीर॥
वीर बीरबर से जहाँ, उपजे कवि अरु भूप। देव बिहारीश्वर जहां, विश्वेश्वर तद्रूप॥
कुलकलंक चितकूटपति, साहस शील समुद्र। कवि भूषण पद्वी दई, हृदयराम सुत रुद्र॥”
—छन्द २६-२९, कवि भूषण, शिवराज


इनके अलावा प्रसिद्ध उपन्यासकार वृंदावन लाल वर्मा ने रानी दुर्गावती नामक उपन्यास में रानी दुर्गावती को कालिंजर नरेश कीर्तिसिंह की पुत्री बताया है। रानी ने दलपत शाह से प्रेम विवाह किया था व अकबर की सेना से युद्ध करते हुए काम आ गयीं। अब्रिहा नामक ग्रन्थ में जेजाकभुक्ति का उल्लेख मिलता है, जिसकी व्याख्या अंग्रेज़ विद्वान रोनाल्ड ने की है व बताया है कि कालिंजर इसका ही एक भाग था। अरब विद्वान यात्री इब्न बतूता ने यहाँ का भ्रमण किया था व विस्तार से उल्लेख किया है। जैन विद्वानों ने इसे जैन तीर्थ माना है व उसे कल्याण-कटक नाम से बताया है। बौद्ध ग्रन्थों में इसे कंचन पर्वत, कारगीक पर्वत एवं चित्रकूट नाम से लिखा है। टॉलमी के भौगोलिक मानचित्र में प्रसाइके को यमुना नदी के दक्षिण में दिखाया गया है, जिसकी राजधानी कालिंजर बतायी है। तबकात-ए-नासिरी में दिल्ली के सुल्तान अल्तमश के १२३३ ई. में कालिंजर पर आक्रमण के उद्देश्य से बढ़ने के बारे में उल्लेख है। यहाँ का राजा तब डर के भाग गया व इस क्षेत्र को खूब लूटा गया को तत्कालीन हिसाब से २५ लाख से अधिक था।

यहाँ देखें विडियो






Comments