बुंदेली पंगत - चूल का न्योता




अब शादी मे खाने में वो आनंद नहीं जो हमारे दिनो में पंगत में आता था ...
अपनी झाँसी में पंगतों की बात ही कुछ और थी
पहले जगह रोकने की जुगाड़ ढूँढी जाती थी और फिर होता था
बिना फटे पत्तल दोनों का सिलेक्शन!
पर साला आधा ध्यान उतारे हुयें चप्पल जूतों पर ही रहता था
उसके बाद सारी मशक़्क़त होती थीं पत्तल पे ग्लास रखकर उड़ने से रोकना!
नमक रखने वाले दद्दु को जगह बताना पड़तीं थी कि "यहां रख नमक" और सब्जी देने वाले को गाइड करना पड़ता था कि भैया हिला के दे या तरी तरी देना!


उँगलियों के इशारे से 2 लड्डू और गुलाब जामुन लेने की जुगाड़ होती थी और इस समय किसी की नज़रों में नहीं झाँका जाता था l
कचोड़ी - पूडी छाँट छाँट के और गरम गरम लेना पहला उसूल होता था
साथ ही पीछे वाली पंगत में झांक के देखना क्या क्या आ गया अपने इधर और क्या बाकी है।जो बाकी है उसके लिए आवाज लगाना फिर पास वाले रिश्तेदार के पत्तल में जबरदस्ती पूडी रखवाना एक ज़रूरी शगुन होता था l
हम तो भाई सन्नाटे वाले को दूर से आता देखकर फटाफट सन्नाटे का दोना गटक जाते थे ;)पहले वाली पंगत कितनी देर में उठेगी उसके हिसाब से बैठने की जगह पर आँख गड़ाए रहते थे l
और पानी वाला कुल्हड़ पड़ोसी ( अगर ग़लती से दुश्मन फँस गया ) की पत्तल में लुड़का देना आख़री रस्म होती थी l
खाने के बाद अगर शंका हो की पेट अभी भी नहीं भरा या कोई आइटम छूट गया तो अगली पात में सबसे कोने में फिरसे बैठना
कहाँ है ये सब अब ?

सन्नाटा 


अब तो दोसा कॉर्नर पीजा कॉर्नर , चीला कॉर्नर के बाहर ऐसी लाइन लगी रहते है जैसे ८ नोवेम्बर के बाद ATM पर लगी थी ...
मैंने ९० के दशक के बाद झाँसी में कभी कोई पंगत का बिलाऊया नहीं पाया ...
९० और उसके बाद की पैदाईश वाले बच्चों ने शादियों का सबसे शानदार आइटम मिस कर दिया ......


आपने क्या क्या मिस कर दिया 

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