वो राजकुमार जो अमर हो गया - हरदौल

वो राजकुमार जो अमर हो गया - हरदौल 



ओरछा नरेश वीरसिंह देव बुंदेला के सबसे छोटे पुत्र हरदौल का जन्म सावन शुक्ल पूर्णिमा सम्बत १६६५ दिनांक २७ जुलाई १६०८ को दतिया में हुआ था। जिस समय हरदौल का जन्म हुआ था उस समय दतिया में पुराना महल, किला आदि इमारतों का निर्माण नहीं हुआ था। रामशाह के शासन काल में बडोनी की जागीर वीरसिंह देव की थी तथा दतिया का इलाका रामशाह के बड़े लड़के संग्रामसिंह की जागीर में शामिल था। सन १५९५ में संग्रामसिंह की मृत्यु हो जाने के बाद उनका लड़का भरतशाह दतिया का जागीरदार हुआ। उसने दतिया नगर के उत्तर में स्थित एक पहाडी पर भरतगढ़ का निर्माण कराया जिसे बाद में वीरसिंह देव ने हस्तगत कर अपना निवास बना लिया था, इसी भरतगढ़ में हरदौल का जन्म हुआ था।

हरदौल की माता का नाम गुमान कुंअरी था, जो वीरसिंह देव की दूसरी रानी थीं। हरदौल के जन्म कुछ दिनों के बाद उनकी माता का स्वर्गवास हो गया था। उनका पालन पोषण वीरसिंह के ज्येष्ठ पुत्र जुझारसिंह की पत्नी चम्पावती ने किया। सन १६२८ में हरदौल का विवाह दुर्गापुर (दतिया) के दिमान लाखनसिंह परमार की बेटी हिमांचलकुंअरी के साथ हुआ।

 सन १६३० में उनके एक पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम विजयसिंह था। सन १६०७ में ओरछा के तत्कालीन राजा रामशाह आगरा में जहांगीर की कैद में थे । सन १६०८ में जहांगीर ने उन्हें इस शर्त पर आजाद किया था कि वे ओरछा का राज्य वीरसिंह को देकर चंदेरी-बानपुर चले जायेंगे।ओरछा का राज्य मिल जाने पर वीरसिंह देव ने हरदौल को एक सनद दी जिसमें उन्हें एरच का जागीरदार बनाया गया था। यह सनद राजा के रूप में उनकी पहली सनद थी। इस घटना की स्मृति में बुंदेलखंड की महिलायें आज भी यह लोकगीत गातीं हैं:-
दतिया के लला हरदौल,
बुन्देला राजा एरच के।



वीरसिंह देव ने हरदौल को शस्त्र के अलावा शास्त्र की पर्याप्त शिक्षा दिलाई। उनमें वीरता के चारों गुण मौजूद थे, वे युद्धवीर, धर्मवीर, दानवीर, व दयावीर थे। अपने इन गुणों के कारण वे जनता में लोकप्रिय हो गए थे। लोग उन्हें देवता की तरह पूजने लगे थे। हरदौल अपने पित्ता के साथ युद्ध अभियानों में जाते थे। इन युद्ध अभियानों में जाते-जाते हरदौल को युद्ध विद्या का अच्छा ज्ञान हो गया था। जब सन १६२८ में महावत खान ने झेलम नदी के किनारे जहांगीर को कैद कर लिया था उस समय हरदौल ने जहांगीर को छुडाने में काफी सहयोग दिया। जहांगीर ने इस सहयोग के लिए उन्हें दरबार में सम्मानित भी किया था।


वीरसिंह काफी वृद्ध हो गए थे। उनके पुत्रों में सामंजस्य नही था। वे विद्रोह कर रहे थे। अपनी इन पारिवारिक समस्यायों को सुलझाने के लिए उन्होंने अपने राज्य की नए सिरे से व्यवस्था की, जिसके अनुसार जुझारसिंह को उतराधिकारी घोषित करते हुए हरदौल को अपने राज्य का दिमान बनाया। उस समय दिमान के पास प्रशासनिक दायित्व के अलावा सेना का दायित्व भी था। अपने पुत्रों के मध्य उन्होंने जागीरों का भी नए सिरे से से बंटवारा किया। इस बार हरदौल को एरच की जगह बडागांव की जागीर मिली।



सन १६२७ में वीरसिंह देव की मृत्यु हो गई। ओरछा की गद्दी पर जुझारसिंह आसीन हुए, हरदौल के पास दिमान का पद यथावत रहा। वीरसिंह देव की मृत्यु के दो या तीन महीनें बाद भीमबर (लाहौर) में जहांगीर की भी मृत्यु हो गई। जहांगीर के मंत्री आसफ खान ने अपनी बहिन नूरजहाँ को धोखा देकर मुग़ल सत्ता पर कब्जा कर लिया और उसे अपने दामाद शाहजहाँ को दे दिया।

जिस समय शाहजहाँ को अपने बादशाह बनने की खबर मिली उस समय वह बुरहानपुर के आसपास निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा था। सेना के नाम पर उसके पास मात्र ४०० या ५०० सवार ही थे। वह बड़ी मुश्किल से महावत खान की २००० राजपूतों की सेना की सहायता से आगरा पहुँच पाया। आगरा पहुचने पर सबसे पहले उसने अपने परिवार के सारे पुरुष सदस्यों को क़त्ल करने का फरमान आसफ खान के पास लाहौर भेजा।इसके बाद उसने २४ फरवरी १६२८ (६ फरवरी १६२८ जुलियन)को आगरा के किले में तख्तपोशी रस्म अदा की। इस समारोह में शामिल होने के लिए उसने जुझारसिंह को भी निमंत्रण भेजा।

हरदौल, चम्पत राय आदि बुन्देला सरदार उक्त समारोह में शामिल होने के पक्ष में नहीं थे। क्योंकि बुन्देलाओं के शाहजहाँ से अच्छे सम्बन्ध नहीं थे। वह इस अवसर पर बदला ले सकता था। लेकिन जुझारसिंह अपनी पारिवारिक समस्याओं से परेशान थे , उनके भाई विद्रोह कर रहे थे। समस्याओं से निपटने के लिए उन्हें एक संरक्षक की आवश्यकता थी जो भाईयों के विद्रोह को दबा सके। इसीलिए उन्होंने आगरा जाने का निर्णय किया और वह अपने साथ नजराने के एक लाख रुपये तथा चार हाथी लेकर आगरा जा पहुंचे ।

जिसकी आशंका थी वही हुआ। शाहजहाँ ने बहाना बना कर जुझारसिंह को कैद करने की योजना बनाई, लेकिन इसकी खबर जुझारसिंह को हो गई और वह बिना किसी को बताये ओरछा भाग आये । जुझारसिंह के भाग जाने की खबर जब शाहजहाँ को हुई तो वह परेशान हो गया, क्योंकि उसने आगरा में तख्तपोशी की रस्म तो अदा कर ली थी पर सत्ता का चक्र जहांगीर की राजधानी लाहौर में घूम रहा था। उसका वहां जाना आवश्यक था लेकिन लाहौर जाने के लिए उसके पास न तो पर्याप्त मात्रा में सेना थी और न ही धन। इन सब की व्यवस्था जुझारसिंह से ही हो सकती थी इसलिए उसने तुरंत महावत खान को जुझारसिंह का पीछा करने भेजा।

महावत खान जुझारसिंह के भाई भगवान राय एवं पहाडसिंह की सहायता से ओरछा के पास सतारा नदी के किनारे जा पहुंचा। हरदौल ने महावत खान की सेना का सामना करने के लिए सतारा नदी के तट पर पहले से ही घेरा बंदी कर ली थी। दोंनो सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ, जिसमें बड़ी मात्रा में मुग़ल सैनिक मारे गए पर वे ओरछा के किले को नहीं जीत पाए। अंत में महावत खान ने कूटनीति का सहारा लेते हुए जुझारसिंह को लालच देकर शाहजहाँ से मिलाने के लिए राजी कर लिया। इसका हरदौल ने भयंकर विरोध किया लेकिन जुझारसिंह ने किसी की एक नहीं सुनी और एक हजार मोहरें नजराने की लेकर शाहजहाँ से मिलाने जा पहुंचे।

शाहजहाँ जुझारसिंह को अपने साथ आगरा ले गया और तीन दिनों तक उसके साथ बड़ा अमानवीय व्यवहार किया। तलवार के जोर पर उसे अपने पैरों पर झुकाने पर मजबूर किया। अंत में जुझारसिंह को अपनी रिहाई के बदले में फिरौती के रूप में १५ लाख रुपये, ४० हाथी तथा करेरा का परगना देना पडा। इसके अलावा दक्षिण में मुग़ल सेना के साथ जाने की नौकरी करनी पड़ी।

सन १६२९ में खानजहान लोधी भी जुझारसिंह की तरह शाहजहाँ की कैद से बचने के लिए अपनी सेना सहित आगरा से भाग आया। मुग़ल सेना उसे रोक नहीं पाईं और वह बुंदेलखंड की सीमा में से होता हुआ दक्षिण की ओर चला गया। उस समय जुझारसिंह दक्षिण में थे। ओरछा में हरदौल थे। खानजहान लोधी बुन्देलाओं का सहयोगी रहा था इसलिए हरदौल ने उसे नहीं रोका और अपने राज्य की सीमा में से निकल जाने दिया। शाहजहाँ को जुझारसिंह पर बरसने का मौक़ा मिल गया। उसने जुझारसिंह को हुकुम दिया कि कैसे भी हो खानजहान लोधी को ज़िंदा या मुर्दा उसके सामने पेश करो। मजबूर हो कर जुझारसिंह ने अपने लडके बिक्रमाजीत को खानजहान लोधी को पकड़ने के लिए भेजा।

काफी परेशानी के बाद विक्रमाजीत ने खानजहान लोधी के भाई दरियाखान व उसके लडके को मारने में सफलता प्राप्त की। इस युद्ध में २०० बुन्देला सैनिक भी मारे गए थे। जुझारसिंह का मानना था कि यह मुसीबत हरदौल के कारण उन्हें झेलनी पड़ी, इसीलिए उन्होंने हरदौल को अपने रास्ते से हटाने का निश्चय कर लिया।
आश्विनी शुक्ल १० संवत १६८८ रविवार दिनांक ५ अक्टूबर सन १६३१ को दशहरा का त्यौहार था। ओरछा के किले में दशहरा का उत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाया जा रहा था।

हरदौल अपने साथियों के साथ उत्सव में भाग लेने के लिये किले में आये हुए थे। जुझारसिंह हरदौल को मारने के लिए मौके की तलाश में थे। यह अवसर उन्हें अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए अनुकूल लगा, इसीलिए उन्होंने भोज के दौरान हरदौल और उसके साथियों को विष खिलवा दिया। विष तेज था, हरदौल व उनके साथियों की तबियत खराब होने लगी। वे समझ गए कि उनके साथ धोखा हुआ। यह समाचार जब नगर में फैला तो हरदौल के प्रशंसकों ने बलवा कर दिया। जुझारसिंह इसके लिए पहले से ही तैयार थे, उन्होंने बलवा करने वाले ९०० समर्थकों को मरवा डाला।

जब हरदौल की तवीयत ज्यादा खराब होने लगी , वह समझ गए कि अब वह ज़िंदा नहीं बच सकते। अंतिम समय में वह भगवान राम के दर्शन करने के लिए रामलला के मंदिर में गए और वहीं पर उनका देहांत हो गया।
हरदौल के समर्थक उनके पार्थिव शरीर को अंतिम संस्कार के लिए ले गए, किवदंती है कि उसी समय हरदौल की बहिन कुंजावती वहां आ गईं और अपने साथ हरदौल का पार्थिव शरीर दतिया ले गईं। दतिया में हरदौल का अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ। उनके समाधि स्थल पर एक मंदिर का निर्माण किया गया।

आज भी धर्मार्थ विभाग से मंदिर जिसे स्थानीय लोग मुकरवा (मकबरा) कहते हैं, की सेवा के लिए जमीन लगी हुई है। जहां मकबरा बना हुआ है उस मोहल्ले को हरदौल का मुहल्ला कहते हैं। सन १७१५ में दतिया के राजा रामचंद्र ने हरदौल के मकबरे के पास एक तालाब का निर्माण कराया जिसका नामकरण भी लला हरदौल के नाम पर लला का ताल रखा, जिसे आजकल लाला का ताल कहते हैं।


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