‘‘इत जमना उत नर्मदा इत चंबल उत टोंस।
छत्रसाल से लरन की रही न काह होंस।’’
मध्यकालीन भारत में विदेशी आतताइयों से सतत संघर्ष करने वालों में छत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप और बुंदेल केसरी छत्रसाल के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, परंतु जिन्हें उत्तराधिकार में सत्ता नहीं वरन ‘शत्रु और संघर्ष’ ही विरासत में मिले हों, ऐसे बुंदेल केसरी छत्रसाल ने वस्तुतः अपने पूरे जीवनभर स्वतंत्रता और सृजन के लिए ही सतत संघर्ष किया। उन्होंने विस्तृत बुंदेलखंड राज्य की गरिमामय स्थापना ही नहीं की थी, वरन साहित्य सृजन कर जीवंत काव्य भी रचे। छत्रसाल ने अपने 82 वर्ष के जीवन और 44 वर्षीय राज्यकाल में 52 युद्ध किये थे। शौर्य और सृजन की ऐसी उपलब्धि बेमिसाल है
वीरों और हीरोंवाली माटी के इस लाड़ले सपूत ने कलम और करवाल को एक-सी गरिमा प्रदान की थी।
मूल ऊर्जा का केंद्रः ओरछा बुंदेलखंड में सन 1531 से गढ़ कुंडार के उतरांत ओरछा ही राज्य के रूप में मूल ऊर्जा केंद्र रहा है। हेमकर्ण की वंश परंपरा में सन 1501 में ओरछा में रुद्रप्रताप सिंह राज्यारूढ़ हुए, जिनके पुत्रों में ज्येष्ठ भारतीचंद्र 1539 में ओरछज्ञ के राजा बने तब बंटवारे में राव उदयजीत सिंह को महेबा (महोबा नहीं) का जागीरदार बनाया गया, इन्ही की वंश परंपरा में चंपतराय महेबा गद्दी पर जिन परिस्थितियों में आसीन हुए उसके बारे में लाल कवि ने ‘छत्रप्रकाश’ में कहा है-‘‘प्रलय पयोधि उमंग में ज्यों गोकुल जदुदाय त्यों बूड़त बुंदेल कुल राख्यों चंपतराय।’’
किंतु पूरे जीवनभर विदेशी मुगलों से संघर्ष करते हुए इस रणबांकुरे बुंदेला को अपने ही विश्वासघातियों के कारण सन 1661 में अपनी वीरांगना रानी लालकुंआरि के साथ आत्माहुति देनी पड़ी।
छत्रसाल के पिता चंपतराय जब मुग़ल सेना से घिर गये तो उन्होंने अपनी पत्नी 'रानी लाल कुंवरि' के साथ अपनी ही कटार से प्राण त्याग दिये, किंतु मुग़लों को स्वीकार नहीं किया। छत्रसाल उस समय चौदह वर्ष की आयु के थे। अपने बड़े भाई 'अंगद राय' के साथ वह कुछ दिनों मामा के घर रहे, किंतु उनके मन में सदैव मुग़लों से बदला लेकर पितृ ऋण से मुक्त होने की अभिलाषा थी। बालक छत्रसाल मामा के यहाँ रहता हुआ अस्त्र-शस्त्रों का संचालन और युद्ध कला में पारंगत होता रहा।
दस वर्ष की अवस्था तक छत्रसाल कुशल सैनिक बन गए थे। अंगद राय ने जब सैनिक बनकर राजा जयसिंह के यहाँ कार्य करना चाहा तो छोटे भाई छत्रसाल को यह सहन नहीं हुआ। छत्रसाल ने अपनी माता के कुछ गहने बेचकर एक छोटी सा सैनिक दल तैयार करने का विचार किया। छोटी सी पूंजी से उन्होंने 30 घुड़सवार और 347 पैदल सैनिकों का एक दल बनाया और मुग़लों पर आक्रमण करने की तैयारी की। 22 वर्ष की आयु में छत्रसाल युद्ध भूमि में कूद पड़े।
'बुंदेलखंड के शिवाजी' के नाम से प्रख्यात छत्रसाल का जन्म ज्येष्ठ शुक्ल 3 संवत 1706 विक्रमी तदनुसार दिनांक 17 जून, 1648 ईस्वी को एक पहाड़ी ग्राम में हुआ था। अपने पराक्रमी पिता चंपतराय की मृत्यु के समय वे मात्र 12 वर्ष के ही थे। वनभूमि की गोद में जन्में, वनदेवों की छाया में पले, वनराज से इस वीर का उद्गम ही तोप, तलवार और रक्त प्रवाह के बीच हुआ। पांच वर्ष में ही इन्हें युद्ध कौशल की शिक्षा हेतु अपने मामा साहेबसिंह धंधेर के पास देलवारा भेज दिया गया था। माता-पिता के निधन के कुछ समय पश्चात ही वे बड़े भाई अंगद राय के साथ देवगढ़ चले गये। बाद में अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए छत्रसाल ने पंवार वंश की कन्या देवकुंअरि से विवाह किया।
जिसने आंख खोलते ही सत्ता संपन्न दुश्मनों के कारण अपनी पारंपरिक जागीर छिनी पायी हो, निकटतम स्वजनों के विश्वासघात के कारण जिसके बहादुर मां-बाप ने आत्महत्या की हो, जिसके पास कोई सैन्य बल अथवा धनबल भी न हो, ऐसे 12-13 वर्षीय बालक की मनोदशा की क्या आप कल्पना कर सकते हैं? परंतु उसके पास था बुंदेली शौर्य का संस्कार, बहादुर मां-माप का अदम्य साहस और ‘वीर वसुंधरा’ की गहरा आत्मविश्वास। इसलिए वह टूटा नहीं, डूबा नहीं, आत्मघात नहीं किया वरन् एक रास्ता निकाला। उसने अपने भाई के साथ पिता के दोस्त राजा जयसिंह के पास पहुंचकर सेना में भरती होकर आधुनिक सैन्य प्रशिक्षण लेना प्रारंभ कर दिया।
राजा जयसिंह तो दिल्ली सल्तनत के लिए कार्य कर रहे थे अतः औंरगजेब ने जब उन्हें दक्षिण विजय का कार्य सौंपा तो छत्रसाल को इसी युद्ध में अपनी बहादुरी दिखाने का पहला अवसर मिला। मइ्र 1665 में बीजापुर युद्ध में असाधारण वीरता छत्रसाल ने दिखायी और देवगढ़ (छिंदवाड़ा) के गोंडा राजा को पराजित करने में तो छत्रसाल ने जी-जान लगा दिया। इस सीमा तक कि यदि उनका घोड़ा, जिसे बाद में ‘भलेभाई’ के नाम से विभूषित किया गयाउनकी रक्षा न करता तो छत्रसाल शायद जीवित न बचते पर इतने पर भी जब विजयश्री का सेहरा उनके सिर पर न बांध मुगल भाई-भतीजेवाद में बंट गया तो छत्रसाल का स्वाभिमान आहत हुआ और उन्होंने मुगलों की बदनीयती समझ दिल्ली सल्तनत की सेना छोड़ दी।
इन दिनों राष्ट्रीयता के आकाश पर छत्रपति का सितारा चमचमा रहा था। छत्रसाल दुखी तो थे ही, उन्होंने शिवाजी से मिलना ही इन परिस्थितियों में उचित समझा और सन 1668 में दोनों राष्ट्रवीरों की जब भेंट हुई तो शिवाजी ने छत्रसाल को उनके उद्देश्यों, गुणों और परिस्थितियेां का आभास कराते हुए स्वतंत्र राज्य स्थापना की मंत्रणा दी एवं समर्थ गुरु रामदास के आशीषों सहित ‘भवानी’ तलवार भेंट की-
करो देस के राज छतारे हम तुम तें कबहूं नहीं न्यारे। दौर देस मुगलन को मारो दपटि दिली के दल संहारो। तुम हो महावीर मरदाने करि हो भूमि भोग हम जाने। जो इतही तुमको हम राखें तो सब सुयस हमारे भाषे।
छत्रसाल बहुत दूरदर्शी थे। उन्होंने ऐसे लोगों को पहले हटाया जो मुग़लों की मदद कर रहे थे।
शिवाजी से स्वराज का मंत्र लेकर सन 1670 में छत्रसाल वापस अपनी मातृभूमि लौट आयी परंतु तत्कालीन बुंदेल भूमि की स्थितियां बिलकुल मिन्न थीं। अधिकाश रियासतदार मुगलों के मनसबदार थे, छत्रसाल के भाई-बंधु भी दिल्ली से भिड़ने को तैयार नहीं थे। स्वयं उनके हाथ में धन-संपत्ति कुछ था नहीं। दतिया नरेश शुभकरण ने छत्रसाल का सम्मान तो किया पर बादशाह से बैर न करने की ही सलाह दी।
ओरछेश सुजान सिंह ने अभिषेक तो किया पर संघर्ष से अलग रहे। छत्रसाल के बड़े भाई रतनशाह ने साथ देना स्वीकार नहीं किया तब छत्रसाल ने राजाओं के बजाय जनोन्मुखी होकर अपना कार्य प्रारंभ किया। कहते हैं उनके बचपन के साथी महाबली तेली ने उनकी धरोहर, थोड़ी-सी पैत्रिक संपत्ति के रूप में वापस की जिससे छत्रसाल ने 5 घुड़सवार और 25 पैदलों की छोटी-सी सेना तैयार कर ज्येष्ठ सुदी पंचमी रविवार वि.सं. 1728 (सन 1671) के शुभ मुहूर्त में शहंशाह आलम औरंगजेब के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजाते हुए स्वराज्य स्थापना का बीड़ा उठाया। छत्रसाल की प्रारंभिक सेना में राजे-रजवाड़े नहीं थे अपितु तेली बारी, मुसलमान, मनिहार आदि जातियों से आनेवाले सेनानी ही शामिल हुए थे। चचेरे भाई बलदीवान अवश्य उनके साथ थे। छत्रसाल का पहला आक्रमण हुआ अपने माता-पिता के साथ विश्वासघात करने वाले सेहरा के धंधेरों पर। मुगल मातहत कुंअरसिंह को ही कैद नहीं किया गया बल्कि उसकी मदद को आये हाशिम खां की धुनाई की गयी और सिरोंज एवं तिबरा लूट डाले गये। लूट की सारी संपत्ति छत्रसाल ने अपने सैनिकों में बांटकर पूरे क्षेत्र के लोगों को उनकी सेना में सम्मिलित होने के लिए आकर्षित किया। कुछ ही समय में छत्रसाल की सेना में भारी वृद्धि होने लगी और उन्हेांने धमोनी, मेहर, बांसा और पवाया आदि जीतकर कब्जे में कर लिए।
ग्वालियर-खजाना लूटकर सूबेदार मुनव्वर खां की सेना को पराजित किया, बाद में नरवर भी जीता। सन 1671 में ही कुलगुरु नरहरि दास ने भी विजय का आशीष छत्रसाल को दिया। ग्वालियर की लूट से छत्रसाल को सवा करोड़ रुपये प्राप्त हुए पर औरंगजेब इससे छत्रसाल पर टूट-सा पड़ा। उसने सेनपति रणदूल्हा के नेतृत्व में आठ सवारों सहित तीस हजारी सेना भेजकर गढ़ाकोटा के पास छत्रसाल पर धावा बोल दिया। घमासान युद्ध हुआ पर दणदूल्हा (रुहल्ला खां) न केवल पराजित हुआ वरन भरपूर युद्ध सामग्री छोड़कर जन बचाकर उसे भागना पड़ा। इस विजय से छत्रसाल के हौसले काफी बुलंद हो गये।
सन 1671-80 की अवधि में छत्रसाल ने चित्रकूट से लेकर ग्वालियर तक और कालपी से गढ़ाकोटा तक प्रभुत्व स्थापित कर लिया। दक्षिण भारत में जो स्थान समर्थगुरु रामदास का है वही स्थान बुन्देलखंड में 'प्राणनाथ' का रहा है, जिस प्रकार समर्थ गुरु रामदास के कुशल निर्देशन में छत्रपति शिवाजी ने अपने पौरुष, पराक्रम और चातुर्य से मुग़लों के छक्के छुड़ा दिए थे, ठीक उसी प्रकार गुरु प्राणनाथ के मार्गदर्शन में छत्रसाल ने अपनी वीरता से, चातुर्यपूर्ण रणनीति से और कौशल से विदेशियों को परास्त किया था। प्राणनाथ छत्रसाल के मार्ग दर्शक, अध्यात्मिक गुरु और विचारक थे।
सन 1675 में छत्रसाल की भेंट प्रणामी पंथ के प्रणेता संत प्राणनाथ से हुई जिन्होंने छत्रसाल को आशीर्वाद दिया-
छत्ता तोरे राज में धक धक धरती होय जित जित घोड़ा मुख करे तित तित फत्ते होय। इसी अवधि में छत्रसाल ने पन्ना के गौड़ राजा को हराकर, उसे अपनी राजधानी बनाया। ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया संवत 1744 की गोधूलि बेला में स्वामी प्राणनाथ ने विधिवत छत्रसाल का पन्ना में राज्यभिषेक किया। विजय यात्रा के दूसरे सोपान में छत्रसाल ने अपनी रणपताका लहराते हुए सागर, दमोह, एरछ, जलापुर, मोदेहा, भुस्करा, महोबा, राठ, पनवाड़ी, अजनेर, कालपी और विदिशा का किला जीत डाला। आतंक के मारे अनेक मुगल फौजदार स्वयं ही छत्रसाल को चैथ देने लगे। बघेलखंड, मालवा, राजस्थान और पंजाब तक छत्रसाल ने युद्ध जीते। परिणामतः यमुना, चंबल, नर्मदा और टोंस मे क्षेत्र में बुंदेला राज्य स्थापित हो गया। सन 1707 में औरंगजेब का निध्न हो गया। उसके पुत्र आजम ने बराबरी से व्यवहार कर सूबेदारी देनी चाही पर छत्रसाल ने संप्रभु राज्य के आगे यह अस्वीकार कर दी। महाराज छत्रसाल पर इलाहाबाद के नवाब मुहम्मद बंगस का ऐतिहासिक आक्रमण हुआ। इस समय छत्रसाल लगभग 80 वर्ष के वृद्ध हो चले थे और उनके दोनों पुत्रों में अनबन थी। जैतपुर में छत्रसाल पराजित हो रहे थे। ऐसी परिस्थितियों में उन्हेांने बाजीराव पेशवा को पुराना संदर्भ देते हुए सौ छंदों का एक काव्यात्मक पत्र भेजा जिसकी दो पंक्तियां थीं
"जो गति गज और ग्राह की सो गति भई है आज बाजी जात बुन्देल की राखौ बाजी लाज।"
फलतः बाजीराव की सेना आने पर बंगश की पराजय ही नहीं हुई वरन उसे प्राण बचाकर अपमानित हो, भागना पड़ा। छत्रसाल युद्ध में टूट चले थे, लेकिन मराठों के सहयोग से उन्हेांने कलंक का टीका सम्मान से पोंछ डाला। यहीं कारण था छत्रसाल ने अपने अंतिम समय में जब राज्य का बंटवारा किया तो बाजीराव को तीसरा पुत्र मानते हुए बुंदेलखंड झांसी, सागर, गुरसराय, काल्पी, गरौठा, गुना, सिरोंज और हटा आदि हिस्से के साथ राजनर्तकी मस्तानी भी उपहार में दी।
4 अप्रैल 1729 को छत्रसाल ने विजय उत्सव मनाया। इस विजयोत्सव में बाजीराव का अभिनन्दन किया गया और बाजीराव को अपना तीसरा पुत्र स्वीकार कर अपने राज्य का तीसरा भाग बाजीराव पेशवा को सौंप दिया। प्रथम पुत्र हृदयशाह पन्ना, मऊ, गढ़कोटा, कालिंजर, एरिछ, धामोनी इलाका के ज़मींदार हो गये जिसकी आमदनी 42 लाख रू. थी। दूसरे पुत्र जगतराय को जैतपुर, अजयगढ़, चरखारी, नांदा, सरिला, इलाका सौपा गया जिसकी आय 36 लाख थी। बाजीराव पेशवा को काल्पी, जालौन, गुरसराय, गुना, हटा, सागर, हृदय नगर मिलाकर 33 लाख आय की जागीर सौपी गयी। छत्रसाल का राज्य प्रसिद्ध चंदेल महाराजा कीर्तिवर्धन से बड़ा था। छत्रसाल तलवार के धनी थे और कुशल शस्त्र संचालक भी थे। वह शस्त्रों का आदर करते थे। वह अपनी सभा में विद्वानों को सम्मानित करते थे। वह स्वयं भी बहुत विद्वान् थे। वह कवि थे, शांति के समय में कविता करना छत्रसाल का प्रिय कार्य रहा है। शौर्य और सृजन की ऐसी उपलब्धि बेमिसाल है
राज्य संचालन के बारे में उनका सूत्र उनके ही शब्दों मेंः राजी सब रैयत रहे, ताजी रहे सिपाहि छत्रसाल ता राज को, बार न बांको जाहि।
यही कारण था कि छत्रसाल को अपने अंतिम दिनों में वृहद राज्य के सुप्रशासन से एक करोड़ आठ लाख रुपये की आय होती थी। उनके एक पत्र से स्वष्ट होता है कि उन्होंने अंतिम समय 14 करोड़ रुपये राज्य के खजाने में (तब) शेष छोड़े थे। प्रतापी छत्रसाल ने पौष शुक्ल तृतीया भृगुवार संवत् 1788 (दिसंबर 1731) को छतरपुर (नौ गांव) के निकट मऊ सहानिया के छुवेला ताल पर अपना शरीर त्यागा और विंध्य की अपत्यिका में भारतीय आकाश पर सदा-सदा के लिए जगमगाते सितारे बन गये। छत्रसाल की तलवार जितनी धारदार थी, कलम भी उतनी ही तीक्ष्ण थी। वे स्वयं कवि तो थे ही कवियों का श्रेष्ठतम सम्मान भी करते थे। अद्वितीय उदाहरण है कि कवि भूषण के बुंदेलखंड में आने पर आगवानी में जब छत्रसाल ने उनकी पालकी में अपना कंधा लगा दिया तो भूषण कह उठेः
और राव राजा एक चित्र में न ल्याऊं- अब, साटू कौं सराहौं, के सराहौं छत्रसाल को।।
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